क्या इस पुराने तरीके से सुप्रीम कोर्ट अयोध्या विवाद को सुलझा पाएगा?

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मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान बेंच ने 5 मार्च को अयोध्या टाइटल विवाद की सुनवाई को टाल दिया और सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि मध्यस्थता के द्वारा ही ये मसला हल हो।

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अगर ये विवाद मध्यस्थता से हल होने की एक प्रतिशत भी संभावना है तो दोनों पक्षों को इसके लिए जाना चाहिए।

6 मार्च को अब इसके बारे में फैसला लिया जाएगा कि कोर्ट द्वारा नियुक्त मध्यस्थ के पास जाना चाहिए या नहीं।

“मुस्लिम” पक्ष ने बेंच को बताया कि वे मध्यस्थता के सुझाव के विरोध में नहीं हैं। “हिंदू” पक्ष की ओर से रामलला विराजमान और महंत सुरेश दास के वकील ने प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि अतीत में मध्यस्थता का प्रयास किया गया था और सफल नहीं हुआ था। निर्मोही अखाड़े ने सुझाव का समर्थन किया।

बेंच ने मंगलवार को अदालत में घंटों की बहस के बाद मध्यस्थता का विकल्प तलाशने को कहा। सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 के तहत न्यायाधीशों को यह पावर देता है कि न्यायालय के बाहर विवाद को हल करने के सभी रास्ते वे देख सकते हैं।

इसमें लिखा है कि जहां यह अदालत को दिखाई देता है कि मामले का सेटलमेंट मौजूद हैं जो सभी पक्षों को मंजूर हो तो अदालत मामले के सेटलमेंट की शर्तों को तैयार करेगी और इन शर्तों को सभी पक्षों को देगी। फिर उनके कमेंट्स इसपर लिए जाएंगे। पक्षों की टिप्पणियों के साथ न्यायालय मामले के सेटलमेंट की शर्तों में सुधार कर सकता है और मध्यस्थता के लिए जा जा सकता है।

अयोध्या टाइटल सूट में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच की तीन-न्यायाधीश बेंच ने 3 अगस्त, 2010 को सभी तर्कों के बाद मध्यस्थता की कोशिश की थी। सभी वकीलों को चैंबर में बुलाया गया और पूछा गया कि क्या वे सुलह करना चाहते हैं। लेकिन ये काम नहीं कर सका। “हिन्दू” पक्ष ने सेटलमेंट से इन्कार कर दिया।

कई पक्षों ने उच्च न्यायालय के आदेश की अपील करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने 2017 में अयोध्या विवाद को “भावनाओं और धर्म” का मामला बताया और सुझाव दिया कि विवादास्पद मुद्दे को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए तो यह सबसे अच्छा होगा।

भारत के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर ने कहा 21 मार्च 2017 को कहा कि “थोड़ा दे, थोड़ा ले। इसे हल करने का प्रयास करें। आपस में मिलकर सुलझाना सबसे अच्छा तरीका है। ये भावनाओं और धर्म का मुद्दा है। अदालत को तभी आना चाहिए जब आप इसे सुलझा नहीं सकते हैं। यदि सभी पक्ष चाहते हैं कि मैं दोनों पक्षों द्वारा बातचीत के दौरान मध्यस्थता के रूप में बैठूं तो मैं इस कार्य को करने के लिए तैयार हूं।

स्वामी ने कहा कि उन्होंने मुस्लिम समुदाय के सदस्यों से संपर्क किया था। हालांकि मुस्लिम पक्ष ने कहा कि मामले को सुलझाने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। खंडपीठ ने स्वामी से पक्षों से परामर्श करने और 31 मार्च को निर्णय के बारे में सूचित करने के लिए कहा। आप सभी एक साथ बैठकर आराम से बात कर सकते हैं।

लेकिन नेगोशिएशन नहीं चल पाए और 31 मार्च को अदालत ने सुनवाई में तेजी लाने से इनकार कर दिया। CJI खेहर ने स्वामी से कहा कि आपने हमें यह नहीं बताया कि आप मामले के पक्ष में नहीं थे, हमें केवल प्रेस से पता चला है।”

दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले विहिप और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच कम से कम तीन प्रधानमंत्रियों लेकिन खासकर चंद्र शेखर और पीवी नरसिंह राव की देखरेख में बातचीत के प्रयास हुए थे लेकिन कुछ हो ना सका और बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। खास बात यह है कि इससे पहले जो भी प्रयास किए गए थे वो कोर्ट द्वारा नहीं किए गए थे। देखना दिलचस्प होगा कि यह मिडिएटर वाला पुराना नुस्खा चल पाएगा या नहीं।

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