क्या ऐसे में बचेगा हमारा संविधान, जब उम्रदराज नहीं त्यागते सत्ता मोह और चुने जाते हैं दागी नेता

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हाल में दिल्ली विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए हैं, लोग उसे संविधान या जनता की जीत मान रहे हैं। परंतु किसी मायने में, सिर्फ इस बहाने की देश की बड़ी और केंद्र में विराजमान भारतीय जनता पार्टी हार गई या आम आदमी पार्टी तीसरी बार अपनी सरकार बनाएगी। केवल एक पार्टी को हराना और देश की अन्य राजनीतिक पार्टियां उसकी हार और दूसरे की जीत पर जश्न मनाती रहेगी। हर बार कोई एक पार्टी की सरकार बनती है। बाकी की हार, पर कभी मंथन नहीं होता कि हमारी हार क्यों हुई और उनकी जीत क्यों हुई?

चुनाव परिणामों पर मंथन होगा भी क्यों? क्योंकि वही पुराने लोग, जो एक समय बाद रूढ़िवादी बन जाते हैं और अपना वजूद बचाने के लिए दूसरी पार्टी को गलत ठहराते हैं। इससे युवाओं का ध्यान भटक जाता है। हां, यह सच है क्योंकि लोग अक्सर अपनी कमजोरी को दूसरों पर थोपना चाहते हैं और खुद बचना चाहते हैं। आप कितना ही दोष राजतंत्र को दो और वह दोषी था तब ही उसका पतन हुआ, परंतु आज देश को आजाद हुए सात दशक से भी अधिक समय हो गया है। क्या बदला अब तक संविधान में?

वही परिवारवाद, वही उम्र दराज राजनीतिकों का सत्ता मोह, 8 से 10 बार विधायक या सांसद की सीट पर मृत्युपर्यंत दावा पेश करना और युवाओं व अन्य योग्य उम्मीदवारों की अनदेखी, आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों की तानाशाही, उन्हें बार—बार टिकट देना, बागी के तेवर, हित पूरे न होने पर दल—बदल और उनके पीछे गुलाम मानसिकता वाले लोगों की अंधी भीड़। फिर पार्टी चाहे सत्ताधारी की हो या किसी अन्य पार्टी, सब इसी ढर्रे पर चल रही है। लोग सोच रहे हैं, हम इनके साथ हैं तो संविधान में परिवर्तन आ रहा है।

दिग्गज कुर्सी का मोह छोड़ने को तैयार नहीं

कितना आसान होता है किसी पुराने समाज या शासन व्यवस्था पर या लोगों पर उंगली उठाना, उनकी खामियां ढूंढ़ना। यदि कठिन है तो खुद में कमियां ढूंढ़ना, आने वाली पीढ़ी के लिए समय पर रिटायरमेंट लेना और युवा को मौका देना। साथ ही अपने अनुभवों से उसे तराशना। हां, खूब पढ़ा होगा राजतंत्र और सामंतवाद की बुराइयों को, कैसे लोगों का शोषण किया गया। परंतु क्या ये बुराइयां आज के लोकतंत्र में नहीं देखने को मिलती है।

अगर निष्पक्ष सोच से मंथन करें तो साफ जाहिर होता है कि जैसे—जैसे समय बदला भारतीय लोकतंत्र में रूढ़िवादिता आ गई। हम सात दशक में देश के संविधान के रक्षकों के लिए योग्यता निर्धारित नहीं कर सके, राजनीतिक पार्टियां उम्रदराज नेता की तानाशाही के खिलाफ कितनी बार विधायक या सांसद बन सकता है, तय नहीं कर पाई। यह ऐसा है जैसे एक राजा मृत्युपर्यन्त सत्ता को मोह त्यागना ही नहीं चाहता, आज भी ऐसा ही है कई राजनेता अपने क्षेत्र में दबदबे के कारण 10—10 बार से सांसद या विधायक बने बैठे हैं। वे युवाओं को मौका देना ही नहीं चाहते हैं। अब बगावत नहीं होगी तो क्या होगा।

किसी पार्टी का एक व्यक्ति ताउम्र पार्टी की सेवा में व्यतीत कर देता है परंतु उसे चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं मिलता, ऐसे में या​ तो वह किसी अन्य पार्टी में चला जाता है या निर्दलीय चुनाव लड़ता है। आज का युवा दबा हुआ है, उम्रदराज राजनीतिक लोगों और परिवारवाद के बोझ से। उसे चाह कर भी नहीं आगे नहीं लाया जा सकता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी महत्त्वाकांक्षा त्यागना नहीं चाहता है।

क्या राजनीतिक पार्टियां दागी लोगों से किनारा करेंगी

हम हर बार चुनावों के समय चुनाव सुधार के लिए कार्य करने वाली गैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की रिपोर्ट पढ़ते हैं। युवाओं को काफी हताशा होती है, परंतु वे भी कुछ नहीं कर पाते हैं। थोड़ा गुस्सा और खीझन के सिवाय। इस बार भी हाल में दिल्ली विधानसभा के चुनाव संपन्न होने पर एडीआर की रिपोर्ट आई जिसमें दिल्ली के 70 विधायकों में से 37 ने घोषणा की है कि उनके खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले लं​बित हैं। इनमें उन पर हत्या की कोशिश और बलात्कार जैसे संगीन आरोप भी हैं। क्या पार्टियों को आपराधिक प्रवृतियों वाले चेहरों के अतिरिक्त कोई और योग्य उम्मीदवार नहीं मिला। शायद यहां पार्टियां और उनके बड़े नेताओं की पारखी कमी है या फिर उन अपराधियों का भय है जो उन्हें टिकट देना पार्टी की मजबूरी है।

एडीआर का रिपोर्ट कहती है कि नए विधायकों द्वारा की गई घोषणाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि उनमें से 43 आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। इन 43 विधायकों में से 37 ने बताया है कि उनके खिलाफ बलात्कार, हत्या के प्रयास और महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं।

यहां किसी पार्टी विशेष के आंकड़े नहीं दिए जा रहे हैं, बल्कि यह बता रहे हैं कि पार्टी कोई भी हो सबका मकसद जनता का विकास करना रहता है। सत्ता में आने के बाद भी सत्ता धारी हमेशा जनता के हित में ही कार्य करती है, यह बात अलग है कि अधिकारी वर्ग उनका लाभ जनता तक कितना पहुंचा पाता है।

वक्त है मंथन का

क्यों कोई पार्टी खुद को इन आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों से बचा पाएगी या फिर लोग केवल किसी पार्टी की छवि खराब करने के लिए संविधान बचाओ के नारे मात्र लगाएगी। संविधान के लिए हर व्यक्ति को अपने स्तर पर त्याग करना होगा, तभी जाकर हम हमारे संविधान निर्माताओं के सपनों का भारत बना पाएंगे। हमें ईर्ष्या—द्वेष और नकारात्मक महत्त्वाकांक्षा को त्याग कर सबका विकास करना है।

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