एसी कमरों में बैठकर बाघों को बचाने की बातें कैसे कर लेते हैं लोग?

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महाराष्ट्र के यवतमाल में बाघिन को मार दिया गया क्योंकि उसने 13 लोगों की जान ली थी। ये घटनाएं तुरंत रोकी भी जा सकती थी और इसके लिए एक बहुत ही सीधा साधा रास्ता अपनाया जा सकता था और वो ये कि अवनि को पकड़कर चिड़ियाघर में डाल दिया जाता। चिड़ियाघर में रहने से अवनि खुद भी सुरक्षित रहती और ना ही वो किसी इंसान पर हमला करती। अवनि की जान लेने वालों ने एकपल के लिए भी नहीं सोचा कि उसके दो छोटे बच्चे भी थे। खैर आज हम इंसान खुद किसी दूसरे इंसान की जान लेने से पहले ही ये बातें नहीं सोचते तो वो तो बेजुबान थी। आखिरकार अवनि मारी गई और वहीं फिर से सोशल मीडिया भर गया ‘Condemn’ के नाम से।
एक बात है जो सोचने पर काफी मजबूर करती है और वो ये है कि ये सभी लोग अभी तक कहां थे जब सुप्रीम कोर्ट ने बहुत पहले ही अवनि के शूट एट साइट के आॅर्डर निकाल दिए थे। देश में इतने पशुप्रेमी संगठन और एनजीओ बनाए बैठे लोगों में से एक ने भी यवतमाल जाकर क्यों उन ग्रामीणों से बातचीत नहीं की जो अवनि को मार डालना चाहते थे। क्यों सोशल मीडिया पर मीटू की तरह कैंपेन नहीं चला जिसका असर होता तो शायद आज अवनि सुरक्षित होती।

 

हम प्रकृति पर्यावरण को बचाने का महज एक दिखावा करते हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण आज देश की राजनीति में रोज सुबह जहरीले धुएं के हवा में घुलने के साथ होता है। पहले तो इंसान ही थे जो बेजुबानों को मार डालते थे अब तो इन्हें मारने के लिए कोर्ट कचहरी तक में कलम चला दी जाती है। देश में बाघों को बचाने के लिए बातें अब एसी कमरों तक सिमट कर रह गई हैं तभी तो अवनि के मामले में सीधा और सरल रास्ता दिखाने वाले कुछ बाघप्रेमियों की बात ना तो मीडिया ने अपने प्राइमटाइम में दिखाई और ना ही सरकारी तंत्र ने इसमें कुछ दिलचस्पी ली।

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में 4 नवंबर को हुई घटना जिसमें एक बाघिन को ट्रैक्टर से कुचलकर मार डाला गया, भी इस बात का ही उदाहरण है कि आज भी एक बहुत बड़े तबके को हमें जानवरों के अधिकारों के प्रति शिक्षित करने की बहुत जरूरत है। आज भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें जंगल और उसके कानून के बारे में कुछ नहीं पता है और वो जंगल के राजा को उसी के घर से उखाड़कर बाहर फेंक देना चाहते हैं। आदि अनादि काल से यही कारण है और बदस्तूर आगे भी रहेगा कि इंसानों के लगातार दखल के कारण ही जानवर आबादी वाले इलाकों में घुसते हैं।

ऐसा नहीं है कि जंगलों के आसपास रहने वाले लोगों के ये जानवर जन्मजात दुश्मन है। आप गुजरात के गिर चले जाइए या फिर राजस्थान के पाली जिले में स्थित बेड़ा गांव। यहां इंसानों और जानवरों का साथ पूरी दुनिया के लिए एक जीता जागता सबूत है कि यदि हम चाहे तो कोई अवनि हमें या हमारे बच्चों को छू भी नहीं सकती जब तक कि हम उसे ये महसूस होने ना दें कि उसके बच्चों को हमसे कोई खतरा नहीं।

दुनियाभर से हम बाघों के नाम पर इतना चंदा इक्ट्ठा करते हैं और उनके संरक्षण के नाम पर किया जाने वाला खर्च एकदम गौण साबित होता दिखता है। हमें इससे मतलब नहीं कि ये पैसा कहां जाता है और किस तरह से खर्च होता है मगर ये प्रश्न जरूर है कि ग्राउंड लेवल पर बाघों के लिए क्या हो रहा है। सरकारों ने तो वैसे भी बाघ अभ्यारण्य को शो पीस ही बना दिया है जहां अंधाधुन पेड़ों की कटाई हो रही है जिससे होटलों का निर्माण हो सके। बाघ परियोजनाएं बनती तो हैं लेकिन जब बाघ ही नहीं रहेंगे तो ये परियोजनाएं भी किस काम की रह जाएंगी। वैसे भी देश में 1500 के करीब ही बाघ बचे हैं और भारत को डब्ल्यूडब्ल्यूएफ द्वारा बाघों के रहने के लिहाज से सबसे असुरक्षित क्षेत्र की श्रेणी में रखा गया है। इनका कुनबा बढ़ाने की बातें करने वाले यदि इनके घर में जा घुसे इंसानों के कुनबे को बाहर निकालें तब जाकर ही कुछ बात बन सकती है। नहीं तो ऐसे हम रोज सोशल मीडिया पर पोस्ट डालते रहेंगे, हाथ में पोस्टर लिए कहीं खड़े हो जाएंगे और कैंडिल मार्च निकालते रहेंगे और एक दिन देश से राष्ट्रीय पशु हमेशा के लिए गायब हो जाएगा।

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