तीन तलाक बिल मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के नाम पर सिर्फ ढ़कोसला है : सामाजिक कार्यकर्ता

Views : 3081  |  0 minutes read

राज्यसभा ने मंगलवार को मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2019 या ट्रिपल तलाक बिल को पक्ष के 99 वोट और विपक्ष के 84 वोटों के साथ पारित कर दिया गया। बिल को 25 जुलाई को लोकसभा में पारित कर दिया गया था और अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होते ही यह कानून बन जाएगा।

कुछ विपक्षी दल बिल के मौजूदा स्वरूप के खिलाफ थे, लेकिन दो सत्तारूढ़ गठबंधन के सदस्यों के सदन से चले जाने के बाद सरकार ने राज्यसभा में बहुमत ना होते हुए भी बिल पास करवा लिया।

बिल में त्वरित ट्रिपल तलाक को अवैध घोषित करता है जहां जो मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नियों को तीन बार लिखित या किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से “तलाक” बोलकर अलग होता है। इसे अब दंडनीय अपराध माना जाएगा जिसके लिए पुरूष को 3 साल की जेल की सजा होगी और विवाहित मुस्लिम महिलाओं और उनके बच्चों को निर्वाहन भत्ता भी दिया जाएगा। आइए क्रमबद्ध तरीके से देखते हैं बिल में क्या प्रावधान रखे गए हैं।

क्या है तीन तलाक बिल में ?

1. तीन तलाक यानि तलाक-ए-बिद्दत गैर कानूनी मानते हुए पुरूष को 3 साल की जेल।

2. पीड़ित महिला को निर्वहन भत्ता दिया जाएगा जिसे जिला मजिस्ट्रेट तय करेगा।

3. इंस्टैंट तीन तलाक देने वाले मुस्लिम पुरूष को पुलिस बिना किसी वारंट के गिरफ़्तार कर सकती है।

4. तीन तलाक देने वाले आरोपी को जमानत के लिए मजिस्ट्रेट का दरवाजा खटखटाना होगा यानी मजिस्ट्रेट ही उसे जमानत दे सकता है। हालांकि, इसके लिए दोनों पक्ष की दलील भी सुनी जाएगी।

5. अगर तीन तलाक देने वाला समझौता करना चाहता है, तो पहले इसके लिए पीड़िता की रजामंदी की जरूरत होगी।

विरोध में उठे स्वर

भाजपा सरकार के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने बिल पास करवाने के बाद जहां लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक दिन बताया वहीं कई सिविल संस्थाओं और सामाजिक संगठनों ने इस बिल की निंदा की।

कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना था कि वह राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद से आग्रह करेंगे कि वे इसे कानून बनाने के लिए हस्ताक्षर ना करें।

बिल का विरोध करने वालों का साफ तौर पर कहना है कि मुस्लिम महिलाओं की सुरक्षा और लैंगिक समानता की आड़ में सरकार मुस्लिम पुरुषों का अपराधीकरण करना चाहती है। जब बात लैंगिक समानता, हकों की आती है तो सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही क्यों ?

इसके आगे अपनी आपत्ति जताते हुए सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना था कि सरकार मुस्लिम महिलाओं को बचाने का ढोंग कर रही है, जब 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रथा को पहले ही असंवैधानिक घोषित कर दिया तो इस पर अलग से बिल लाना एकदम बेतुका लगता है।

बिल वास्तव में मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय की परवाह नहीं करता है, क्योंकि तीन साल तक पति को जेल भेजने के बाद महिला को अपने ससुराल वालों की दया पर ही रहना होगा, जो शायद संभव नहीं होगा।

विरोध के दौरान चले हस्ताक्षर अभियान में हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा कि पर्सनल लॉ हमेशा से सिविल लॉ रहे हैं इन्हें कभी आपराधिक मामले नहीं बनाया गया। यह भारत के इतिहास में पहली बार हो रहा है कि हम शादी और तलाक के मामलों में आपराधिक प्रावधानों को देख रहे हैं।

COMMENT