महज 8 साल की उम्र में ही ‘ध्रुपद’ और ‘ख्याल’ गायन करने लगे थे मेंहदी हसन साहब

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कला का रचयिता ईश्वर है और वही हर कलाकार को ख़ास काम के लिए इस ​दुनिया में भेजता है। अपनी कलाकारी के मिज़ाज, हुनर और ​कठिन परिश्रम के दम पर आर्टिस्ट को अपनी कला साबित करनी होती है। आज हम जिनके बारे में बात करने जा रहे हैं, उनका इंतकाल पाकिस्तान में हुआ। लेकिन वो राजस्थान के एक छोटे से गांव में जन्मे थे। इस सुप्रसिद्ध कलाकार को ‘ग़ज़ल का राजा’ कहा जाता है। उनकी मख़मली आवाज का जादू इस कदर था कि स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर ने तारीफ़ करते हुए कहा था, ‘ऐसा लगता है, मेंहदी हसन साहब के गले में भगवान बोलते हैं।’ मेहदी हसन साहब की 13 जून को ग्यारहवीं डेथ एनिवर्सरी है। इस अवसर पर जानिए उनके जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

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अपनी पुश्तों की 16वीं पीढ़ी के गवैया थे मेंहदी हसन

मेंहदी हसन एक सुप्रसिद्ध इंडो-पाक क्लासिकल, ठुमरी और ग़ज़ल गायक थे। मेंहदी हसन का जन्म 18 जुलाई, 1927 को राजस्थान के झुंझुनूं जिले के मलसीसर उपखंड के गांव लूणा में हुआ था। वे अपनी पुश्तों की 16वीं पीढ़ी के गवैया थे। इससे पहले उनकी 15 पीढ़ियों ने भी गायन का काम किया था। उन्हें ‘खां साहब’ के नाम से भी जाना जाता है। (पठानों के अलावा अपने नाम के आगे ‘खां साहब’ वही लोग लगा सकते हैं जिनकी कम से कम लगातार तीसरी पुश्त यानी पीढ़ी गायन का काम कर रही हो)।

मेंहदी जयपुर के मशहूर कलावंत संगीत घराने से आते थे, इस तरह उन्हें संगीत विरासत में मिली थी। मेंहदी ने अपने पिता अज़ीम हसन खां और चाचा उस्ताद इस्माइल खां से संगीत की शिक्षा ली। बंटवारे के बाद मेहंदी हसन का परिवार पाकिस्तान जाकर बस गया था।

शुरुआत में कई छोटे-मोटे काम कर जीवन यापन किया

मेहदी हसन ने 6 वर्ष की उम्र में गायन सीखना शुरू कर दिया था। मात्र 8 साल की उम्र में ही वह ‘ध्रुपद’ और ‘ख़याल’ गायन का काम कर रहे थे। बड़ौदा महाराज के सामने उन्होंने आठ साल की उम्र में परफॉर्म किया तो उनकी गायन से प्रभावित होकर उन्हें सम्मानित किया गया। बंटवारे के बाद पाकिस्तान पहुंचे मेंहदी के परिवार को आर्थिक रूप से हालातों का सामना करना पड़ा और उन्होंने वहां खुद की एक साइकिल और स्कूटर रिपेयर की दुकान खोल ली। बाद में इस दुकान को उन्होंने अपने बड़े भाई को संभला दी और ख़ुद पाकिस्तान के ही सिन्ध प्रान्त स्थित शख़्खर नगर में गुलाम हसन डीजल इंजन ऑयल कंपनी में करीब छह माह काम किया।

कुछ समय बाद मेंहदी यहां से कार मैकेनिक का काम सीखने बहावलपुर पहुंच गए थे। यहां वे हर माह पांच से 6 हजार रुपये मासिक तक कमाने लगे। इसके बाद उन्होंने एग्रीकल्चर इंजीनियर के रूप सरगोधा में काम किया और फिर यहां से वे कुछ वर्षों बाद वापस संगीत की दुनिया में लौट आए।

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जगह-जगह काम करते हुए भी नहीं छोड़ा संगीत

पाकिस्तान में उन्होंने कई जगह अलग-अलग काम किए, लेकिन वे संगीत से दूर नहीं हुए। काम के चक्कर में वे सुबह 3 बजे उठकर रियाज़ किया करते थे। इसके साथ ही मेंहदी पहले की तरह ही शारीरिक कसरत भी प्रतिदिन किया करते थे। उन्होंने पहली बार फिल्म ‘शिकार’ मे दो ग़ज़लें गाई और दोनों खूब मक़बूल यानी हिट हुई। इसके बाद उन्हें कराची के ‘रेडियो पाकिस्तान’ से प्रोग्राम रिकॉर्ड कराने का बुलावा आया। एक गायक के तौर पर हसन को पहचान वर्ष 1957 में मिली। उन्होंने रेडियो पाकिस्तान के लिए ठुमरी गायन किया।

इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने दुनिया भर में कई कार्यक्रम कर अपनी ग़ज़ल गायकी से जादू बिखेरा। 80 के दशक में तबीयत खराब होने के कारण मेंहदी ने प्लेबैक सिंगिग छोड़ दी और काफी समय तक संगीत से दूर रहे।

50 हजार से अधिक ग़ज़लें, गीत और ठुमरी गाईं

मेंहदी हसन ने अपने करियर में क़रीब 54,000 ग़ज़लें, गीत और ठुमरी गाईं। उन्होंने ग़ालिब, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फ़राज़, मीर तक़ी मीर और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे शायरों की ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। हसन साहब ने अपनी आखिरी रिकॉर्डिंग एचएमवी के एल्बम ‘सरहदें’ के लिए की। इसमें उन्होंने मशहूर गायिका लता मंगेशकर के साथ गाना गाया। मेंहदी हसन की गायकी में कुछ ऐसा जादू था कि लता भी उनकी फैन हैं और अकेले में उन्हीं की ग़ज़ल सुनना पसंद करती हैं।

राजस्थान आए तो गांव की मिट्टी से ल‍िपटकर रो पड़े थे मेंहदी

वर्ष 1978 में मेंहदी हसन जब अपनी भारत यात्रा पर आए तो उस वक्त गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बनकर जयपुर भी पहुंचे। यहां पहुंचने के बाद उनकी एक ख़्वाहिश को पूरा किया गया। वो ख़्वाहिश थी एक बार उस जमीं का दीदार करने की ज‍हां उनके पुरखे दफन थे और उन्होंने अपना बचपन बिताया था। गजल गायक की इस आरजू का पूरा ख्याल रखा गया और उन्हें पैतृक गांव राजस्थान में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव ले जाया गया। बताते हैं कि जब मेंहदी हसन की गाड़ियों का काफिला उनके पैतृक गांव पहुंचा तो उन्होंने गाड़ी रुकवा दी।

वो कार से उतरे, गांव में सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था। उसके पास पड़ी रेत में ल‍िपटकर यूं खेलने लगे जैसे बचपन लौट आया हो। मेहंदी हसन का ये प्यार देखकर वहां खड़े हर शख्स की आंखें नम थीं, क्योंकि वक़्त बीतने के बावजूद बंटवारे का दर्द लोग भूल नहीं पाए थे। इस दौरे पर उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल से अपने गांव में बिजली पहुंचाने और सड़क बनवाने की मांग की थी। उनके गांव में बिजली तो तीन दिन में पहुंचा दी गई, लेकिन सड़क खुद मेहदी हसन ने कार्यक्रम में मिली रकम और ​झुंझुनूं के सेठों से कहकर बनवाई थी।

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सम्मान

ग़ज़ल की दुनिया में अपने महान योगदान के लिए मेंहदी हसन साहब को ‘शहंशाह-ए-ग़ज़ल’ की उपाधि से नवाजा गया था। उन्होंने कई सम्मान और पुरस्कार अपने नाम किए। पाकिस्तान में उन्हें सबसे बड़े सिविलियन अवॉर्ड में से एक ‘तमगा-ए-इम्तियाज़’, ‘प्राइड ऑफ़ परफ़ॉर्मेंस’ और ‘हिलाल-ए-इम्तियाज़’ से सम्मानित किया गया। ये सभी पाकिस्तान के सबसे बड़े सम्मान हैं। मेंहदी हसन को उनकी बेहतरीन गायकी के लिए वर्ष 1979 में भारत में ‘सहगल अवॉर्ड’ से नवाजा गया था।

निधन

ग़ज़लकार मेंहदी हसन वर्ष 1999 से फेफड़ों की बीमारी के शिकार थे, जिस वजह से ही उन्होंने गायकी छोड़ दी थी। कहा जाता है कि उन्हें गले का कैंसर हो गया था। इसी के चलते उन्होंने 13 जून, 2012 को पाकिस्तान के करांची शहर स्थित आगा खान यूनिवर्सिटी अस्पताल में दुनिया को अलविदा कह दिया था। मेंहदी साहब के गुज़र जाने के बाद उनके घराने की 17वीं पुश्त को बेटा आसिफ हसन मेंहदी आगे बढ़ा रहे हैं। मेहदी हसन ने दोनों देशों के बीच दूरी कम करने के लिए भी बड़े प्रयास किए।

ये हैं मेंहदी हसन की कुछ मशहूर गजलें

मेंहदी हसन ने अपने जीवन में कई यादगार ग़ज़लें गाई थीं। उनकी ग़ज़लों को आज भी सुनने वालो की कमी नहीं है, ये ग़ज़लें सीधा दिल में उतरने का काम करती है। उनकी कुछ बेहद खास ग़ज़लें रही, जिन्होंने उनकी शख़्सियत को और बड़ा बनाया। इन्हीं में से पांच ग़ज़लें हैं जिन्हें आप भी इस दौर में सुनकर सुकून महसूस सकते हैं-

1. दिल की बात लबों पर।

2, अबकी हम बिछड़े तो।

3. दिल ए नादान तुझे हुआ क्या।

4. रंजिशें ही सहीं।

5. मोहब्बत करने वाले कम न होंगे।

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