ये कैसा लोकतंत्र का पर्व जहां आपराधिक प्रवृतियां पार्टी आदर्शों पर हावी हो रही है, आखिर क्यों?

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अगर मैं ये कहूं कि राजतंत्र दोषी नहीं था…
इतना सुनते ही पूरे बौद्धिक वर्ग में भूचाल आ गया।
अजी, सुनिए तो सही मेरा वाक्य पूरा हुआ नहीं, आप तो मुझे ही कौसने लगे हैं, मेरी मानसिकता को राजाशाही से कुत्सित कह रहे हैं। आप को लगता है मैं मानवाधिकार के विरुद्ध जा सकता हूं, इतना मेरे में साहस कहा।

पहले मेरे कथन को सुनिए फिर आप जो चाहे कहना।

मैं कह रहा था कि राजतंत्र दोषी नहीं था, बल्कि मानव दोषी था जिसने सिर्फ अपने निजी स्वार्थ और नकारात्मक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते आमजन और कमजोर वर्ग का शोषण किया था, जिसमें अधिकारी वर्ग पूरी तरह से लिप्त था।

मेरे कथन का तात्पर्य यह है कि शासन व्यवस्था कोई भी हो जब तक मानव में निजी स्वार्थ और नकारात्मक महत्त्वाकांक्षा जिन्दा है, तब तक हर शासन व्यवस्था में कमजोर और अधिकारविहीन व्यक्ति उपेक्षित होता रहेगा।

अब भारतवर्ष में लोकतंत्र के पर्व में हमें यही देखने को मिल रहा है, जो जनप्रतिनिधि लोगों के हितैषी बनने का दावा करते हैं उनके चारों ओर स्वार्थी लोग होते हैं जो जनता के कार्यों से पहले जीताने में सहयोगियों के काम करते नजर आते हैं।

अब आप कहेंगे कि लोकतंत्र में लोगों अपने प्रतिनिधि को चुनकर भेजते हैं, यह सच है यहां लोग अपना प्रतिनिधि खुद चुनते हैं पर किन्हें? जिन्हें जो आपराधिक प्रवृति के बावजूद जनता चुनने को मजबूर है।

शायद यह पार्टी मुखिया की कमजोर निर्णय शक्ति और पद लोलुपता का से बढ़कर कुछ नहीं है। तभी तो ऐसे लोगों से डर कर उन्हें टिकट दिया जाता है और यह दावा किया जाता है कि हम लोकतंत्र के पहरेदार है।

मैं किसी शासन व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न नहीं लगा रहा हूं मैं केवल उन लोगों पर प्रश्न उठा रहा हूं जो शासन व्यवस्था में अपनी भूमिका इस शपथ के साथ निभाने के लिए आते हैं, पर वे अपने लोगों के स्वार्थ के चलते लोगों से किये वादों को भूल जाते हैं।

भारतीय संदर्भ में हम लोकतंत्र की बातें करें तो स्पष्ट होता है कि कोई जन प्रतिनिधि है ही नहीं। इस चुनावी दंगल में सबके सब जबरदस्ती थोपे जा रहे हैं और लोग मजबूरन उन्हें चुने जा रहे हैं।

देश दलगत पार्टियों के साये से बाहर निकल नहीं पा रहा है और पार्टियों खुद को पालने वालों और क्षेत्रीय पकड़, जाति—धर्म के आगे नतमस्तक हो रही हैं। चाहे कितनी ही बड़ी पार्टी हो। वे ये आंकलन नहीं कर पा रही है कि पार्टी आदर्श बड़े हैं या वो व्यक्ति जो आपराधिक प्रवृति का है।
पार्टी को डर है कि अगर बाहुबली को टिकट नहीं दिया तो वह बागी हो जाएगा और विपक्ष से एक सीट हार जाएंगे, फिर क्या तुष्टिकरण की नीति अपनाते हैं और पार्टी आदर्श धरे रह जाते हैं। जिस पर कई केस दर्ज है या वे जो पैसे के दम पर या ताकत के दम पर जीतना जानते हैं वे ही आज के दौर में सिरमौर बन हुए हैं।

जनता सिर्फ खुद को लोकतंत्र के आवरण में बंधा तो पाती है, पर उपेक्षित होने का विरोध भी नहीं कर सकती।

देखिए एडीआर की यह रिपोर्ट जो कहती है कि भारत में लोकतंत्र एक मजाक है

अब आज के प्रबुद्ध जन से पूछता हूं कि क्या लोकतंत्र किसी ऐसे व्यक्ति को जन प्रतिनिधित्व का अधिकार देता है जो अपराधिक प्रवृति का हो या पैसे के दम पर किसी राजनीतिक पार्टी का टिकट लिया हो?
जब इन लोगों के नियत सही नहीं है तो भैय्या हमें बताये कि कौनसी शासन व्यवस्था है जो लोगों को उनका हक़ दिला सके।

श्रीमान, शुरूआत में हर व्यवस्था अच्छी होती है पर जैसे—जैसे लोगों में निजी स्वार्थ और नकारात्मक महत्त्वाकांक्षा जाग्रत होती है। हर शासन व्यवस्था में दोष उत्पन्न होने लगते हैं।

इतिहास में ऐसे शासकों भी हुए हैं जिन्होंने अपनी प्रजा को पुत्रवत पाला है और ऐसे शासक भी हुए हैं जिन्होंने सिर्फ अपने ऐशोआराम के लिए जनता का शोषण किया है।

अब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट पर चर्चा करते हैं जो बताती है कि लोकसभा चुनाव 2019 में देश की दो बड़ी पार्टी और क्षेत्रीय दलों ने तुष्टिकरण की नीति अपनाते हुए आपराधिक और अमीरों को टिकट दिया है जिन्होंने खुद को लोकतंत्र के बड़े पोषक होने का दावा किया है।

देश की जनता के सामने ऐसे लोगों को ला खड़ा किया है, जिनको मतदान न करते हैं तो आपराधिक प्रवृति वालों की जीत होना पक्की है और अगर नोटा का प्रयोग करें तो मतदान बेकार है क्योंकि अभी नोटा का जन्म हुआ हैं। थोड़ा वक्त लगेगा उसे मजबूत बनने में, तब तक ये आपराधिक प्रवृति वाले मजे से अपने इरादों में कामयाब होते रहेंगे।

अब बिहार में पार्टियों द्वारा आपराधिक प्रवृति वालों को टिकट

अब बताओं कौन जिम्मेदार है लोकतंत्र को कमजोर बनाने के लिए, है तो यहां भी वही मानव, फर्क इतना है कि यहां शासन व्यवस्था का रूप अलग है, पर शोषित तो वही मानव कमजोरों को कर रहा है।

औरंगाबाद में कुल 09 उम्मीदवार, तीन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज। यहां से बसपा के प्रत्याशी नरेश यादव के खिलाफ पांच केस दर्ज है, जिसमें तीन गंभीर मामले हैं। धोखाघड़ी और 307 के दो मुकदमें के भी नरेश यादव आरोपित हैं।

इसी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार सुशील कुमार सिंह के खिलाफ तीन मुकदमे दर्ज हैं। इनमें दो गंभीर प्रकृति के है। स्वराज पार्टी के उम्मीदवार सोमप्रकाश के एक खिलाफ एक भी मुकदमा दर्ज नहीं है।

गया में कुल उम्मीदवार 13,तीन पर आपराधिक मुकदमा, जदयू उम्मीदवार 12 वीं पास तो जीतन मांझी हैं स्नातक

जमुई में कुल आठ उम्मीदवार, तीन पर आपराधिक मुकदमे दर्ज। चिराग पासवान के खिलाफ एक केस दर्ज है जबकि, रालोसपा के भूदेव चौधरी पर तीन मुकदमें लंबित हैं।

नवादा में 13 उम्मीदवार, लोजपा के चंदन सिंह पर तीन मुकदमा, 17 करोड़ की है संपत्ति।

उत्तर प्रदेश की 96 उम्मीदवारों में से आपराधिक प्रवृति वाले 24 उम्मीदवार हैं जो बड़ी पार्टियों में से भी है। इनमें से 17 प्रत्याशियों ने खुद पर गम्भीर मुकदमे दर्ज होने की बात बताई है।

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