क्या होता है राजद्रोह, ध्यान से पढ़ लो इन बातों पर नहीं लगता ये कानून!

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“सेडिशन” पर हमेशा से ही बहस होती आई है। आए दिन टीवी डिबेट इसी को लेकर चलते रहते हैं। जेएनयू में छिड़े विवाद ने इस “राजद्रोह” की बहस को खासा हवा दी। ऐसे में मीडिया क्या कहती है क्या नहीं कहती उसपर सभी के अपने अपने तर्क हैं लेकिन जो सबसे ऊपर है वो है कोर्ट। ऐसे में कोर्ट इस चार्ज पर क्या कहता है या हमारा कानून क्या कहता है इसको जान लेना ही बेहतर है।

इंडियन पीनल कोड के तहत ‘राजद्रोह’ को कैसे परिभाषित किया गया है?

आईपीसी की धारा 124 ए के तहत अगर कोई व्यक्ति शब्दों से या ऐसी कोई चीज करता है ताकि सरकार के द्वारा बनाए गए नियमों के प्रति नफरत का महौल बन सके या इस माहौल को उत्तेजित कर सके तो उस पर राजद्रोह का केस चलाया जा सकता है। इस प्रावधान में तीन स्पष्टीकरण भी जोड़े गए हैं। बताया गया है राजद्रोह के लिए किसी के “ असंतोष” में एक दुश्मनी की सभी तरह की भावनाएं होनी चाहिए। अगर किसी व्यक्ति के कमेंट नफरत, घृणा, अवमानना, भड़काने की भावनाओं को उत्तेजित नहीं कर रहे हैं तो यह अपराध नहीं माना जाएगा।

दंड कानून के तहत राजद्रोह एक सजा देने योग्य, गैर-जमानती और बिना समझौते वाला अपराध है। जिसमें अधिकतम जुर्माना के साथ आजीवन कारावास तक की भी सजा हो सकती है। 1860 में यह अधिनियमित मूल IPC का हिस्सा नहीं था। यह 1870 में पेश किया गया था और कहा गया था कि गलती से मूल IPC मसौदे में इसको शामिल नहीं किया गया था।

ब्रिटिश सरकार द्वारा IPC के इस प्रावधान का उपयोग कैसे किया गया था?

यह कानून राष्ट्रवादी आवाज़ों और आजादी की मांगों को समाप्त करने के काम आया। भारत के राष्ट्रीय नायकों की सूची काफी लंबी है जिन पर राजद्रोह के मामले चलाए गए थे। उनमें बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, भगत सिंह और जवाहरलाल नेहरू शामिल हैं। “देश का दुर्भाग्य” शीर्षक के साथ अपने अखबार “केसरी” में लिखने के लिए प्रिवी काउंसिल द्वारा राजद्रोह का दोषी पाए जाने के बाद तिलक को छह साल की जेल की सजा सुनाई गई थी।

हालांकि, 1937 में फेडरल कोर्ट द्वारा “राजद्रोह” की व्याख्या अलग से की गई थी और प्रिवी काउंसिल ने भी ऐसा ही किया जो लंदन में स्थित अपील की सर्वोच्च अदालत थी।

प्रिवी काउंसिल ने तिलक के मामले में तय कानून को रेखांकित किया कि हिंसा के लिए उकसाना ही राजद्रोह का अपराध बनाने के लिए आवश्यक पूर्व शर्त नहीं थी। यह माना गया कि सरकार के लिए शत्रुता की भावनाओं को उत्तेजित करना धारा 124 A के तहत अपराध को स्थापित करने के लिए काफी थी।

सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्रता के बाद से धारा 124 ए की व्याख्या कैसे की है?

1962 में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार के एक केदार नाथ सिंह की अपील को निपटा दिया। जिन्हें एक भाषण देने के लिए राजद्रोह के आरोप में दोषी ठहराया गया था और जेल में डाल दिया गया था। भाषण में कहा गया था कि “आज, बरौनी के आसपास सीबीआई के कुत्ते घूम रहे हैं। कई आधिकारिक कुत्ते भी इस मीटिंग में बैठे हैं। भारत के लोगों ने अंग्रेजों को देश से निकाल दिया और कांग्रेस के इन गुंडों को गद्दी के लिए चुना। जैसे हमने अंग्रेजों को बाहर निकाला, हम हड़ताल करेंगे और कांग्रेस के इन गुंडों को भी बाहर निकालेंगे। उन्होंने आज देश में लाठियों, गोलियों का शासन स्थापित किया है। हम विश्वास करते हैं कि क्रांति आएगी, और जिसकी आंच में पूँजीपति, ज़मींदार और कांग्रेसी नेता राख हो जाएंगे जब भारत के गरीब और दलित लोगों की सरकार स्थापित हो जाएगी।“

शीर्ष अदालत में अपनी अपील में सिंह ने धारा 124 ए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया और कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत फ्री स्पीच के उनके अधिकार को प्रभावित करता है। जैसा कि स्वभाविक था अदालत ने धारा 124 ए की दो सीधे परस्पर विरोधी व्याख्याओं का सामना किया। निर्णयों ने इस पर विरोधाभासी विचार व्यक्त किए कि हिंसा के लिए उकसाना या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की प्रवृत्ति धारा 124 ए के तहत अपराध का एक आवश्यक फैक्टर था।

और मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया?

अदालत ने जांच की कि धारा 124 ए की संवैधानिकता राज्य के अधिकार और सार्वजनिक व्यवस्था की सुरक्षा के लिए है तो क्या यह फ्री स्पीच के अधिकार पर प्रतिबंध भी लगा रही है? और इसने IPC में धारा 124 A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है। यहां राजद्रोह के अपराध का उद्देश्य कानून द्वारा स्थापित सरकार को विकृत होने से रोकना था क्योंकि कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता की एक अनिवार्य शर्त है।

ठीक है, तो फिर आखिर राजद्रोह क्या है?

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने केदार नाथ मामले में फैसला सुनाया कि ऐसा कोई भी एक्ट जिसमें लोगों को भड़काने या जनता में रोष पैदा करके सरकार को नष्ट करने का इफेक्ट हो उसे राजद्रोह के कहते हैं। दूसरे शब्दों में, कोई भी लिखित या बोले गए शब्द आदि, जो कि हिंसक तरीकों से सरकार को अपने अधीन करने के विचार से संबंधित हैं जिन्हें ‘क्रांति’ शब्द में अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है।

और राजद्रोह क्या नहीं है?

अदालत ने फैसला सुनाया कि कानून के माध्यम से उनके सुधार या परिवर्तन के लिए सरकार के उपायों को स्वीकार न करना राजद्रोह नहीं है। यह माना गया कि ऐसे कमेंट जो सरकार के कार्यों को खारिज करते हैं और कुछ ठोस शब्दों का प्रयोग करते हैं ताकि सरकार की निंदा की जा सके लेकिन किसी और को हिंसा के लिए ना भड़काए तो ऐसे केस में इसे राजद्रोह नहीं माना जाएगा।

अदालत ने कहा कि सरकार या उसकी एजेंसियों के उपायों या कामों पर कड़े शब्दों में कमेंट करना, ताकि लोगों की स्थिति को सुधारने या कानूनन तरीकों से उन कामों या उपायों को रद्द करना या बदलने के लिए विरोध करना, जिसमें शत्रुता की कोई भावना ना हों और ना ही सार्वजनिक अव्यवस्था या हिंसा को उत्साहित नहीं करता हो राजद्रोह नहीं माना जाएगा।

किसी भी नागरिक को आलोचना या कमेंट के माध्यम से सरकार या उसके उपायों के बारे में जो कुछ भी वह पसंद करता है उसे कहने या लिखने का अधिकार है इसलिए जब तक लोगों को सरकार के खिलाफ भड़ाकाने के उद्देश्य से लोगों को हिंसा के लिए उकसाता नहीं है वह राजद्रोह नहीं माना जा सकता।

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