स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों का संस्कृत से हिंदी में इसलिए किया था अनुवाद

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Dayanand-Saraswati-Biography

भारतीय दार्शनिक, समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की 12 फ़रवरी को 199वीं जयंती है। इन्होंने वैदिक धर्म को पुनर्स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दयानंद ने वैदिक धर्म में आए आडम्बरों को दूर करने पर बल दिया था। इसके अलावा इन्होंने महिलाओं के लिए समान अधिकार और शिक्षा पर भी जोर दिया। स्वामी दयानंद ने पहली बार वर्ष 1876 में स्वराज पर बल देते हुए कहा था कि ‘भारत भारतीयों के लिए है।’ इस ख़ास अवसर पर जानिए महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रेरणादायक जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें..

बचपन से ही मूर्ति पूजा के खिलाफ थे दयानंद

दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में मोरबी जिले स्थित टंकरा में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका असल नाम मूलशंकर था। इनके पिता का नमा दर्शन लालजी और माता अमृतबाई थीं। स्वामी दयानंद के पिता शिव भक्त थे और इन्हें भी शिव को प्रसन्न करने के उपाय सिखाते थे। इन्हें उपवास का महत्व भी सिखाया। शिवरात्रि के अवसर पर दयानंद ने रात्रि जागरण किया।

इस दौरान इन्होंने एक चूहे को भगवान शिव पर चढ़ाए प्रसाद को खाते देखा तो उनकी आस्था को ठेस पहुंचा। इसके बाद इन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध शुरू कर दिया। इनके इस कार्य से देशभर में लोगों में रोष जाग्रत हुआ और इन्हें कई बार जान से मारने की धमकी भी मिलीं। परंतु वह अपने मार्ग से नहीं हटे और समाज के सुधार के लिए लगातार कार्य करते रहे। बाद में हैजा से उनकी छोटी बहन और चाचा की मृत्यु हो जाने से उनके जीवन का उद्देश्य बदल गया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आजीवन विवाह नहीं किया और वर्ष 1846 में अपना घर छोड़ दिया।

दयानंद ने विरजानंद दंडिषा को बनाया अपना गुरु

दयानंद सरस्वती ने सत्य की खोज के लिए कठोर तपस्या की। इन्होंने भौतिक वस्तुओं को त्याग दिया था और आत्म-वंचना का जीवन व्यतीत किया। वे तपस्या के लिए हिमालय चले गए थे। इन्होंने विरजानंद दंडिषा को अपना गुरु बनाया। गुरु विरजानंद का मानना था कि हिंदू धर्म अपने मूल आधार से भटक गया और इसमें कुरीतियां और आडंबर आ गए हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती ने विरजानंद को वचन दिया कि वे अपना जीवन हिंदू धर्म और वेदों को पुनर्जीवित करने में समर्पित करेंगे।

स्वामी दयानंद ने मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की

स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म में सुधार के लिए वर्ष 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की। इनके द्वारा लिखित रचनाएं, आर्य समाज और हिंदू धर्म एक अद्वितीय घटक है। आर्य समाज सभी पुरुषों और सभी देशों के लिए समान रूप से न्याय करता है, साथ ही साथ लिंगों की समानता को भी स्वीकारता है। आर्य समाज ने हिंदू धर्म में मूर्तिपूजा, पशुबलि, पूर्वज पूजा, तीर्थ यात्रा, पुजारी, मंदिरों में चढ़ावा, जाति प्रथा, बाल विवाह व अस्पृश्यता आदि की निंदा की है।

स्थिर हिंदू विचारों को सुधारने के लिए नई व्याख्याएं दी

स्वामी दयांनद सरस्वती ने अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ यानि सत्य की रोशनी के माध्यम से स्थिर हिंदू विचारों को सुधारने के लिए नई व्याख्याएं दीं। इनके अनुसार समाज सेवा के माध्यम से मुक्ति संभव थी। इन्होंने भारतीय धर्म ग्रंथों के पठन-पाठन में महिलाओं के समान अधिकारों और उनके लिए शिक्षा का समान अधिकार की वकालत की। स्वामी ने माना कि एक भाषा के माध्यम से किसी समाज के सदस्यों को एकजुट करने का अच्छा साधन है। इसलिए, उनका विचार था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिया जाना चाहिए।

दयानंद सरस्वती ने वेदों का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद किया, ताकि आम आदमी आसानी से वेदों को पढ़ सके। आर्य समाज प्रार्थना सभाओं और उपदेशों में नेताओं के रूप में महिलाओं की स्वीकृति हिंदू धर्म में दुर्लभ है। आर्य समाज हिंदू धर्म में एक दुर्लभ धारा है, जो हिंदू धर्म में धर्मान्तरित होने की अनुमति देता है और प्रोत्साहित करता है।

महान दार्शनिक और समाज सुधारक का निधन

वैदिक धर्म को पुनर्स्थापित करने वाले महान दार्शनिक और समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का निधन 30 अक्टूबर, 1883 को हुआ। इन्हें भारत के राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन ने ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ में से एक कहा, जैसा कि श्री अरबिंदो ने किया था।

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