क्या हमें 2019 को देशभक्ति उर्फ प्रोपेगेंडा फिल्मों का साल घोषित कर देना चाहिए ?

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जब हम नए साल का जश्न मना रहे होते हैं तो हमारे लिए नए साल के संकल्पों को पूरा करने का एक जोश हमारे अंदर होता है। जैसे-जैसे जनवरी अब खत्म होने को है हम महसूस करते हैं कि साल का पहला महीना ही अभी तक चल रहा है!

हमनें 2019 में जनवरी के अभी सिर्फ 28 दिन बिताए हैं और बॉलीवुड ने हमारे सामने पहले से ही चार बड़ी फिल्में (उरी, मणिकर्णिका, द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर और ठाकरे) और दो आने वाली अस्पष्ट फिल्में (72 घंटे: शहीद हू नेवर डेड और बटालियन 609) रख दी हैं जो राजनीति, देशभक्ति और एक अच्छा देशभक्त कौन होता है, क्या करता है, इन सभी की परिभाषा अपने हिसाब से बुनती है।

फिल्मों के इस तरह के स्पेक्ट्रम पर राजनीतिक एजेंडे वाली सभी बहस पहले से ही खत्म हो चुकी है और अभी और भी बहुत कुछ होना बाकी भी है। हालांकि, इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अप्रैल और मई में होने वाले आम चुनावों के कारण यह साल पूरे भारत के लिए अहम है।

आने वाले दिनों में हमारे सामने ओमंग कुमार द्वारा निर्देशित विवेक ओबेरॉय अभिनीत वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक होगी। वहीं परेश रावल ने यह भी घोषणा की है कि वह अपनी आगामी फिल्मों में से एक में देश के पीएम का किरदार निभा रहे हैं।

इसके अलावा इसी साल हम सलमान खान की भारत और अक्षय कुमार की केसरी के भी गवाह बनेंगे, अगर रिपोर्टों की मानें तो इनकी कहानी भी देशभक्ति के विषयों के ईर्द-गिर्द घूमती है।

हाल में रिलीज हुई मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ़ झाँसी एक ऐसी फ़िल्म है जो एकीकृत भारत की धारणा का इस्तेमाल “बाहरी लोगों” के आक्रमणों के कारण अपनी मातृभूमि को प्यार करने के संदेश को आगे बढ़ाने के लिए बनाई गई है। वहीं कुछ दिन पहले आई द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर जिसे कुछ कांग्रेस नेताओं ने कांग्रेस की इमेज को गलत तरीके से पेश करने के आरोप में बैन करने की मांग की थी।

बेशक, इससे पहले हमें उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक मिल गई थी जिसमें भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से चली आ रही नफरत की राजनीति को दिखाया गया है। इसके साथ ही हमें बाल ठाकरे की बायोपिक भी मिली है जो उस नेता का महिमामंडन करती है जिसने विभाजनकारी हिंदुत्व की राजनीति में अपनी विरासत की जड़ें सींची।

कुछ फिल्म निर्माता यह तर्क भी दे सकते हैं कि एक चुनावी साल में राजनीतिक और देशभक्ति की बातें करने वाली फिल्मों को रिलीज करना अच्छे बिजनेस का खेल होता है। हालांकि, ऐसा करने की नैतिकता के बारे में बहस अभी भी चल रही है। वहीं कुछ लोगों ने तर्क दिया है कि, भले ही बॉलीवुड में राजनीतिक रूप से चार्ज फिल्में बनाने का एक लंबा इतिहास रहा हो, लेकिन इस साल की सारी पेशकश कुछ ज्यादा ही पक्षपातपूर्ण लगती है।

हालाँकि, कई लोगों ने इस तरह की चिंताओं से इतर यह सीख लिया है कि लोगों के कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। तो, फिर आप क्यों दिमाग पर इतना जोर दे रहे हैं, इसके बजाय आप तो यह सोचिए कि आप इस सीजन में अपने पॉपकॉर्न के पैसे किस पर खर्च कर रहे हैं?

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