मॉब लिंचिंग: मोदी न्याय पर भरोसे की बात करते हैं लेकिन कानून इंसाफ नहीं दिला पाता

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बुधवार की बात है संसद में प्रधानमंत्री मोदी का भाषण चल रहा था। मॉब लिंचिंग का जिक्र उन्होंने अपने भाषण में किया। उन्होंने कहा कि झारखंड में एक युवक की हत्या से वे दुखी हैं लेकिन साथ ही वे झारखंड के बचाव में उतरे। मोदी ने कहा कि झारखंड को लिंचिंग का अड्डा कहना गलत है। वहां के सभी निवासियों को एक अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। इसके बजाय लोगों को कानून और न्याय में विश्वास होना चाहिए।

फिर भी लिंचिंग पिछले कुछ सालों में सामान्य सी बात बनकर रह गई है। जहां कई मामलों में पुलिस पीड़ित पर ही मुकदमा करने की जल्दबाजी दिखाती है। जिसमें बाइक चोरी, गाय तस्करी या गौ हत्या के मामले ज्यादातर देखने को मिलते हैं।

18 जून की बात है जब 22 साल के तबरेज़ अंसारी को एक खंभे से बांध दिया गया और भीड़ द्वारा उसे बुरी तरह पीटा गया। उससे “जय श्री राम” और “जय हनुमान” के नारे लगवाए गए। उसके बाद क्या हुआ? झारखंड पुलिस आती है और तबरेज को गिरफ्तार करके ले जाती है। तबरेज पर आरोप लगा था कि वो बाइक चोरी की कोशिश कर रहा था। शुरूआती पुलिस रिकॉर्ड में इस चीज का भी जिक्र नहीं था कि तबरेज का शोषण किया गया और उसके साथ सामूहिक मारपीट की गई।

चार दिन बाद तबरेज अंसारी को स्थानीय अस्पताल ले जाया गया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया। चार दिन यानि अगर उसकी चोटों का इलाज ठीक से किया जाता तो उसकी जान बचाई जा सकती थी। पुलिस ने इस पर कहा है कि उन्हें उसकी मारपीट के बारे में पता नहीं था और तरबेज ने इसके बारे में बात भी नहीं की। झारखंड का यह मामला एक पैटर्न में फिट बैठता है।

दादरी वाला केस याद ही होगा। चार साल पहले मोहम्मद अखलाक बीफ-संबंधी हिंसा के पहले पीड़ितों में से एक थे जिसमें अखलाक को भीड़ के हाथों मार दिया गया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने क्या किया? शुरूआती जांच में उत्तर प्रदेश पुलिस पूरी तरह से इस बात में लगी हुई थी कि क्या अखलाक के घर के फ्रिज में गाय का मांस था या नहीं। पुलिस ने इस बात पर ध्यान तक नहीं दिया कि उसे भीड़ के हाथों मार दिया गया।

एक साल के अंदर एक स्थानीय अदालत ने ग्रेटर नोएडा पुलिस को 1955 के उत्तर प्रदेश गौ रक्षा अधिनियम के तहत मारे गए अखलाक और उसके परिवार के छह सदस्यों के खिलाफ आरोप दायर करने का आदेश दिया। लेकिन जिन कुछ लोगों पर इस लिंचिंग के आरोप लगे थे उनका ध्यान जरूर भारतीय जनता पार्टी द्वारा रखा गया।

साल 2017 में ही पहलू खान की मौत हुई। लोगों को शक था कि पहलू खान गौ तस्करी कर रहा था। इस आरोप में उसे भीड़ द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया। जिस गाय को वो ले जा रहा था पहलू के पास कानूनी रूप से उसके पूरे कागजात भी थे। कुछ महीनों के बाद पुलिस ने दावा किया कि पहलू खान ने जिन छह लोगों का नाम लिया था उनके खिलाफ किसी तरह के सबूत नहीं मिले। एक साल बाद पहलू खान के दो साथी जिनके साथ भी मारपीट की गई थी लेकिन वे बच गए थे उन पर गौ तस्करी के लिए मुकदमा चलाया गया।

2018 में मणिपुर में 26 साल के एमबीए ग्रेजुएट और एक आंत्रप्रन्योर मोहम्मद फारूक खान को एक दो पहिया वाहन चुराने के आरोप में पीट-पीटकर मार डाला गया था। हिंसा के वीडियो भी सामने आए। जब भीड़ फारूक पर हमला कर रही थी पुलिस वहीं पर खड़ी थी और कुछ नहीं कर रही थी। घटना के बाद दायर की गई चार्जशीट में कुछ हत्यारों पर केस दर्ज किया गया और साथ ही फारूक के बाइक चोरी की भी बात दर्ज थी।

ये लॉजिक अजीब सा है। यह मेजोरिटी लोगों में एक परसेप्शन बनाता है कि क्राइम करने के पीछे कोई वजह थी। पुलिस एफआईआर और आरोप पत्र दायर करती है। पीड़ितों की मृत्यु हो गई क्योंकि वे किसी तरह के क्राइम में दोषी थे। यह कानून और सिस्टम है जो इसे पुश करता है। किसी की हत्या घृणा की वजह से की गई लेकिन उसे किसी छोटे से क्राइम के पीछे ढ़क दिया जाता है।

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