जम्हूरियत, कश्मीरियत, इंसानियत: कश्मीर के बारे में अमित शाह के दावे कितने सही हैं?

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पिछले सप्ताह जम्मू-कश्मीर की अपनी यात्रा के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अशांत राज्य कश्मीर के लिए अपनी नीति की रूपरेखा तैयार की। उन्होंने “जम्हूरियत, कश्मीरियत, इन्सानियत” बहाल करने की बात कही। यह विचार फिलहाल अलगाववादियों और आतंकवादियों के लिए जीरो टोलरेंस के साथ आया है।

अमित शाह ने कश्मीर के हालात की जिम्मेदारी हमेशा की ही तरह नेहरू, कांग्रेस, आर्टिकल 370 और लेफ्ट स्टूडेंट्स और लेफ्ट उदारवादियों से मिलकर बने “टुकड़े टुकड़े गैंग” के सर पर मढ़ी। कुल मिलाकर अमित शाह के मुताबिक जो भी व्यक्ति संघ के विचारों के खिलाफ काम कर रहा है वो कश्मीर की दशा की जिम्मेदार है।

संसद ने अमित शाह के भाषण के बाद जम्मू-कश्मीर में अगले छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन के विस्तार को मंजूरी दे दी और जम्मू-कश्मीर आरक्षण संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी। इस विधेयक को पहले राज्यपाल के प्रशासन द्वारा एक अध्यादेश के रूप में पेश किया गया था जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सीमा के साथ रहने वाले सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों के लिए राज्य सरकार की नौकरियों में नियुक्तियों और पदोन्नति में आरक्षण का प्रस्ताव शामिल है।

गृहमंत्री अमित शाह ने कश्मीर में केंद्रीय शासन के फायदों की बात की जो जून 2018 में लागू किया गया था। अमित शाह ने कहा कि मिलिटेंसी को कश्मीर से बाहर किया जा रहा था। विकास हो रहा था। पंचायत चुनावों के साथ लोकतंत्र वापस पटरी पर था। जम्मू-कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगाते हुए शाह ने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाले केंद्र ने वह किया जो कांग्रेस नहीं कर सकती थी। दशकों पहले घाटी से खदेड़े गए कश्मीरी पंडितों और सूफियों की वापसी को सुनिश्चित करते हुए उन्होंने दावा किया कि कश्मीरी बहाल हो जाएंगे। गृह मंत्री अमित शाह के इन दावों में कितनी सच्चाई है आइए जानते हैं।

क्या राष्ट्रपति शासन के दौरान घाटी में शांति बढ़ी है?

यह स्पष्ट नहीं है कि अमित शाह जम्मू और कश्मीर में सुरक्षा अभियानों की सफलता को किस तरह से मेजर करते हैं। अगर उसका मतलब सीमा पार से होने वाली गोलीबारी है तो नियंत्रण रेखा पर सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान के बालाकोट पर हवाई हमलों ने सीमा पर शांति को बहाल नहीं किया है। हाल के सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस साल अब तक पाकिस्तान द्वारा 1,248 संघर्ष विराम उल्लंघन हुए हैं जिसमें चार सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई है। इसका मतलब है कि यह पिछले साल 30 जुलाई तक 1,432 उल्लंघनों को भी पीछे छोड़ देगा जिसमें 59 सुरक्षाकर्मी और नागरिक मारे गए थे।

अगर अमित शाह का मतलब घाटी में हो रही हिंसा से डील करना था तो 14 सालों में जनवरी से जून का वक्त सबसे खराब रहा। 2019 के पहले छह महीनों में 72 कर्मियों की मौत हो गई थी। फरवरी के आत्मघाती हमले की वजह से भारत-पाक युद्ध की स्थिति आ गई थी इस हमले में 40 केंद्रीय पुलिस बल के जवान मारे गए थे।

गृह मंत्रालय के खुद के आंकड़ों के अनुसार 2 दिसंबर 2018 तक उस साल “आतंकवादी हिंसा” की 587 घटनाएं हुई थीं 2017 में ये 342 थी और 2016 में इनकी संख्या 322 थी। साफ पता चलता है 2018 इस दशक में सबसे घातक साल था जिसमें सबसे ज्यादा मुठभेड़ें, आम नागरिक हताहत जैसी स्थितियां देखने को मिलीं।

सरकार ने हाल ही में खुलासा किया कि तीन वर्षों में 700 से अधिक आतंकवादी और 112 नागरिक मारे गए थे। उग्रवादियों की लाशों की गिनती को सरकार अक्सर घाटी में अपनी जीत के रूप में दिखाती है और मैसैज देती है कि उग्रवाद का सफाया हो रहा है। सरकार एक बार और इस पर विचार कर सकती है।

191 स्थानीय युवा पिछले साल उग्रवाद में शामिल हो गए। कुछ अनुमानों के अनुसार 2017 में 126 और 2016 में इनकी संख्या 88 थी। इस साल कितने शामिल हुए इस बारे में कोई स्पष्ट आंकड़े नहीं हैं लेकिन रिपोर्टें बताती हैं कि उग्रवादियों में भर्तियों लगातार बढ़ रहा है। दक्षिण कश्मीर में घाटी के उत्तरी जिलों में स्थानीय उग्रवाद फैल गया है।

क्या ‘जम्हूरियत’ कश्मीर लौट आई है?

अमित शाह ने पिछले साल हुए 2011 के बाद पहली बाद कश्मीर में पंचायत चुनावों की घोषणा को केंद्रीय शासन की उपलब्धियों में से एक बताया और विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया। कुल मिलाकर राज्य ने 74% का एक मजबूत मतदान किया हालांकि कश्मीर घाटी के 10 जिलों में यह 41.3% तक कम था। इसके अलावा ये आंकड़े पूरी कहानी नहीं बताते हैं। वे केवल उन मतदाताओं का प्रतिशत गिनाते हैं जो मतदान के क्षेत्रों में दिखाई दिए।

2,135 पंचायत हलकों में से 708 में कोई उम्मीदवार नहीं थे और 699 इलाकों में एक उम्मीदवार बिना किसी विरोध के जीता था। इसका मतलब है कि घाटी में लगभग दो तिहाई हलकों में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। दक्षिण कश्मीर के चार जिलों में पुलवामा और शोपियां में कोई मतदान नहीं हुआ। कुलगाम में 99% हिस्सों में कोई मतदान नहीं हुआ।

नगरपालिका चुनावों के लिए, घाटी में कुल मिलाकर 4.2% मतदान हुआ। दक्षिण कश्मीर के वोटरों को श्रीनगर में उच्च सुरक्षा वाले इलाकों में हफ्तों तक रोक दिया गया था वे अपने वार्ड में जाने से भी डर रहे थे।

दक्षिण कश्मीर की अनंतनाग सीट पर तीन चरणों में मतदान हुआ। भारतीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था। वोटर्स ने दक्षिण कश्मीर के कई हिस्सों में जाने की हिम्मत नहीं की। अनंतनाग में 8.76% मतदान रहा। चुनाव के दिनों में मतदाताओं की तुलना में सड़कों पर अधिक सुरक्षा कर्मियों को देखा गया।

सरकार किसको इन्सानियत दिखा रही है?

कश्मीरी युवाओं और बच्चों को उग्रवाद के लिए सरकार के “जीरो टोलरेंस” का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। सुरक्षाबलों ने बताया कि गनफाइट्स के दौरान कई मौतें हुईं क्योंकि भीड़ उग्रवादियों और सैनिकों के बीच जा फंसे।

लेकिन पिछले साल दिसंबर में पुलवामा में हुई एक गोलाबारी में वहां निवासियों का दावा है कि सैनिकों ने नागरिकों पर गोलियां चलाईं। उन्होंने बताया कि आतंकवादियों के साथ सैनिकों की मुठभेड़ उस वक्त खत्म भी हो चुकी थी। उस दिन सात नागरिक मारे गए थे जिनमें दो नाबालिग भी शामिल थे।

विरोध प्रदर्शनों और पथराव के दौरान भीड़ को पीछे हटाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली शॉटगन का इस्तेमाल जारी है। पिछले तीन वर्षों में सैकड़ों युवा इसकी चपेट में आए और वे अंधे हो गए। पिछले साल 20 महीने की हिबा निसार शॉटगन की सबसे कम उम्र की शिकार बन गई। गोली के छर्रे उसकी आंख में लगे।

14 फरवरी के पुलवामा हमले के लगभग एक महीने बाद सुरक्षा बलों द्वारा उठाए गए एक स्कूल शिक्षक की हिरासत में यातना देने के आरोप भी सामने आए।

सशस्त्र बलों द्वारा कथित मानवाधिकारों के हनन के बावजूद सरकार ने इस पर किसी भी तरह के एक्शन से इन्कार कर दिया। इस साल संयुक्त राष्ट्र ने विशेष रूप से केंद्र से पिछले साल एक रिपोर्ट में कथित आरोपों के खिलाफ उठाए गए कदमों के बारे में पूछा गया था। यह जम्मू और कश्मीर गठबंधन द्वारा सिविल सोसायटी के लिए प्रकाशित टॉर्चर पर एक रिपोर्ट के साथ मेल खाता है। सरकार ने सभी आरोपों को खारिज कर दिया।

सरकार का कश्मीरियत से क्या मतलब है?

अब तक “कश्मीरियत” जो घाटी की संस्कृति के बारे में बताता है अब वो एक विवादित नाम बन चुका है। कश्मीरियत के मायने बदल गए हैं। सरकार के अनुसार आज़ादी के लिए आंदोलन कश्मीरियत के खिलाफ है इस्लाम के सलाफी संस्करणों द्वारा उग्रवाद को बढ़ाया गया जिसने कश्मीर की सूफी परंपरा को नष्ट कर दिया, युवाओं को “कट्टरपंथी” बना दिया और कश्मीरी पंडितों को निकाल दिया।

फिर भी पिछले साल राज्य की अपराध शाखा द्वारा संकलित एक रिपोर्ट बताती है कि धार्मिक विचारधारा और उग्रवाद के नए चरण के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। 156 युवाओं में से जो 2010 और 2015 के बीच आतंकवादी रैंकों में शामिल हुए थे उनमें 71% हानाफ़िया के रूप में पहचाने गए। हानाफिया को सूफी कल्चर के सबसे करीब माना जाता है और केवल 3% उग्रवादियों का झुकाव सलाफी की तरफ था।

यह सच है कि कश्मीरी पंडितों की हत्या और पलायन ने समुदायों के बीच एक गहरा संघर्ष छेड़ दिया। लेकिन कश्मीरी पंडितों का कहना है कि मोदी सरकार ने कुछ नहीं किया। 2014 के बाद से, भाजपा के घोषणापत्र ने “सम्मान, सुरक्षा और आजीविका” के साथ वापसी का वादा किया है। इस पर आज तक कोई भी अमल नहीं हुआ है।

समुदाय को फिर से संगठित करने के लिए सरकार की नीतियों को और भी अधिक ध्रुवीकरण करने वाली माना जा रहा है। 2015 में अलगाववादी नेतृत्व ने उनकी वापसी के लिए कहा था हालांकि इसने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी-भाजपा गठबंधन सरकार द्वारा प्रस्तावित पंडित कॉलोनियों का विरोध किया था। इस बीच घाटी के नागरिक संगठनों ने कश्मीरी पंडित की हत्याओं की जांच जारी रखने के लिए कहा।

बंकरों को कब पूरा किया जाएगा?

सीमा पर रहने वालों तक पहुंचने के बाद शाह ने कहा कि उनकी सरकार उन्हें पाकिस्तानी गोलाबारी से बचाने के लिए 15,000 बंकरों का निर्माण करेगी। उन्होंने कहा कि लगभग 4,400 बंकर पहले ही बन चुके थे।

फिर भी सरकार ने जनवरी 2018 तक 14, 460 बंकरों को लगाने का वादा किया था। उस वर्ष के पहले कुछ महीनों में संघर्ष विराम उल्लंघन के बाद तब गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उन्हें शीघ्र लगाने के लिए कहा था। मार्च 2019 तक उनमें से केवल एक चौथाई का निर्माण किया गया था। शाह के भाषण के अनुसार तब से अब तक बस इतने ही बंकर बने हैं भले ही संघर्ष विराम उल्लंघन जारी रहा।

क्या जमात-ए-इस्लामी पर पहले कभी पाबंदी नहीं लगाई गई?

अंत में शाह ने कहा कि बीजेपी ने जमात-ए-इस्लामी जम्मू और कश्मीर पर प्रतिबंध लगाया। यह एक सामाजिक-धार्मिक संगठन है जिसने दशकों से राजनीतिक इस्लाम का प्रचार किया है। अमित शाह ने आगे कहा कि यह उग्रवादी नेटवर्क पर सरकार की कार्रवाई का हिस्सा था।

लेकिन कश्मीर में जमात पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के दौरान और फिर 1990 के दशक में पांच साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया जब घाटी में उग्रवाद व्याप्त था। 1987 तक इसने भारतीय चुनावों में भाग लिया। उग्रवाद के शुरुआती दिनों में संगठन पाकिस्तान समर्थक हिजबुल मुजाहिदीन से जुड़ा था। तब से सरकार समर्थक सेना के क्रोध का सामना करने के बाद जमात ने समूह से खुद को दूर कर लिया।

आज, संगठन का कहना है कि इसका काम बोर्ड से ऊपर है। यह स्कूलों और अनाथालयों सहित दान का एक बड़ा नेटवर्क चलाता है। यह स्पष्ट नहीं है कि जमात पर हमले का उग्रवाद पर कितना प्रभाव पड़ेगा।

सैकड़ों जमात नेताओं की गिरफ्तारी को सरकार की सुरक्षा नीतियों में कश्मीर में किसी भी संभावित राजनीतिक प्रतिरोध को हटाने के प्रयास के रूप में देखा जाता है।

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