मोदी जी, पैर धोने से क्या होगा जब मैला उठाने वाले गटर में मर रहे हैं?

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सरकार द्वारा स्वच्छ भारत अभियान पर फोकस करने बाद भी असुरक्षित स्वच्छता कार्य अभी भी खुद सफाई कर्मचारियों द्वारा किया जा रहा है। भारत में स्वच्छता कार्यों में पाँच मिलियन लोग कार्यरत हैं, जिनमें से लगभग दो मिलियन लोग बहुत रिस्क वाले सफाई कामों में हैं।

हम देश में सफाई कर्मचारियों की स्थिति और सरकार के प्रयासों के बारे में हम बात करने जा रहे हैं।
पिछले कुछ वर्ष भारत में स्वच्छता के लिए गोल्डन साल रहे हैं। 1990 के दशक में स्वच्छता अभियान के रूप में यूपीए सरकार के तहत निर्मल भारत अभियान की शुरुआत हुई और फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस पर विशोष ध्यान दिया और इसे स्वच्छ भारत अभियान में बदल दिया।

प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान ने सीधे तौर पर सफाई बजट को बढ़ाया। देश भर में एक मिशन-मोड में इस अभियान को चलाया गया और चलाया भी जा रहा है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार 80 मिलियन अतिरिक्त शौचालय का निर्माण हो रहा है। 2014 में जहां सिर्फ 40 प्रतिशत पोपुलेशन के पास टॉयलेट था अब बताया जा रहा है कि 89 प्रतिशत लोगों के पास ये सुविधा है। लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं होती। खासकर मैला ढ़ोने वालों के लिए तो नहीं।

रविवार को इलाहाबाद में पांच स्वच्छता कार्यकर्ताओं के पैर प्रधानमंत्री ने धोए और ये वीडियो, फोटो धल्लड़े से वायल हो गई। अब यह सामने आया है कि अंतरिम बजट में खुद मैला ढोने वालों के पुनर्वास या विकास के लिए केंद्र सरकार ने आधे से ज्यादा आवंटिक बजट घटा दिया।

अगले वित्तीय वर्ष के लिए अंतरिम बजट में इस योजना के लिए केवल 30 करोड़ रुपये निर्धारित किए गए हैं। 2018-19 के संशोधित अनुमानों के अनुसार अगले वित्तीय वर्ष के लिए बजट जो अगले महीने समाप्त होगा, 70 करोड़ रुपये का था।

मैनुअल स्कैवेंजर्स( मैला ढ़ोने वाले) के पुनर्वास के लिए स्व रोजगार योजना के तहत इन लोगों को दूसरे काम प्रोवाइड कराने के लिए इस धन को आवंटित किया जाता है।  इसी के अंदर एक पुनर्वास कानून के तहत मैनुअल स्कैवेंजर्स को 40,000 रुपये की तत्काल सहायता दी जानी चाहिए। तब व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है और उद्योग शुरू करने के लिए प्रत्येक को 15 लाख रुपये तक के कम ब्याज वाले लोन की पेशकश की जाती है।

हालांकि 1993 में देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था लेकिन एक सर्वे में अब तक लगभग 30,000 मैनुअल मैला ढोने वालों की पहचान की गई है। यह आंकड़ा बढ़कर 45,000 तक पहुंचने की उम्मीद है।

सफ़ाई करमचारी एंडोलन के राष्ट्रीय संयोजक और मैग्सेसे पुरस्कार विजेता बेजवाड़ा विल्सन ने कहा कि मैनुअल स्कैवेंजरों के पुनर्वास या विकास के लिए जो पैसा या वैकल्पिक नौकरियां दी जाती हैं उससे 300 मैनुअल स्कैवेंजरों का भी पुनर्वास संभव नहीं है।

केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के एक अधिकारी ने आवंटन का बचाव करते हुए कहा कि यह राशि 40,000 रुपये प्रति व्यक्ति की प्रारंभिक सहायता को पूरा करने के लिए आवश्यक खर्च को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की गई है। अधिकारी ने कहा कि 16,000 लोगों को अब तक पहली सहायता दी गई थी लेकिन उन्हें दिए गए लोन के विवरण का खुलासा नहीं किया।

यह आंकड़ा बताता है कि कम से कम 14,000 लोगों (सर्वेक्षण द्वारा अभी तक पहचाने नहीं गए लोगों को छोड़कर) को अभी तक कोई सहायता नहीं दी गई है। उनमें से ज्यादातर को नए साल के कम आवंटन पर निर्भर रहना होगा।

यदि 14,000 का पुनर्वास किया जाना है तो अकेले प्रारंभिक सहायता के लिए 56 करोड़ रुपये की आवश्यकता होगी। हालाँकि अंतरिम बजट में यह आंकड़ा पूरे बजट में बाद में बढ़ाया जा सकता है लेकिन ऐसा भी संभव नहीं है जहां सरकार किसानों की स्थिति में ऐसा करेगी। जिससे इन सफाई कर्मचारियों के आवंटन में बढ़ोतरी मुश्किल ही लगती है।

सबसे जरूरी बात यही है कि अगर ट्रेनिंग, लोन और प्रारंभिक सहायता तुरंत प्रभाव से प्रोवाइड नहीं की जाती है तो ये कर्मचारी कभी इससे बाहर नहीं निकल सकते और अपने विकास और उत्थान के बारे में सोच भी नहीं सकते। विल्सन ने कहा कि मोदी सरकार के पास हाथ से मैला ढोने वालों के लिए कोई कमिटमेंट नहीं थी। विल्सन ने आगे बताया कि स्वच्छता कर्मचारियों के पैरों को साफ करना दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं है।

मोदी ने इलाहाबाद नगरपालिका द्वारा स्वीपर के रूप में नियोजित पांच व्यक्तियों के पैर धोए थे और वीडियो ट्वीटर अकाउंट पर पोस्ट की थी।  आपको बता दें कि वाल्मिकी समाज दलित वोटों का पांचवां हिस्सा है। मैला ढोने वालों को दिए गए लोन के आंकड़ों की भी कमी मंत्रालय में दिखाई दी।

विल्सन ने कहा कि सरकार ने लोन और स्किल-ट्रेनिंग के लिए योजना को लोकप्रिय नहीं बनाया है। “प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त, 2014 को लाल किले से 2019 तक भारत को स्वच्छ बनाने के बारे में बात की थी।

लेकिन इस सरकार द्वारा मैनुअल मैला ढोने की समस्या को उतना सीरीयसली नहीं लिया गया। आवंटन के आधार पर सरकार का प्रस्तावित खर्च 10,000 रुपये प्रति कर्मचारी जितना कम है।
पिछले चार महीनों में पर्याप्त सावधानियों के बिना सीवर टैंकों में काम करते हुए देश में एक दर्जन मैनुअल मैला ढोने वालों की मौत हो गई है।

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