डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रहित में समर्पित कर दिया था जीवन, पत्नी के निधन के बाद नहीं किया दूसरा विवाह

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प्रमुख चिंतक, शिक्षाविद्, राजनेता और भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज 23 जून को 70वीं पुण्यतिथि है। उन्हें एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में जाना जाता है। डॉ. श्यामा प्रसाद, पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति मंत्री के पद पर भी रहे थे। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू के साथ मतभेद के कारण उन्होंने मंत्रिमंडल से त्याग-पत्र दे दिया था और एक अलग पार्टी ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना की। यही पार्टी आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी यानि भाजपा बनीं।

डॉ. मुखर्जी ने अनुच्छेद 370 का कड़ा विरोध किया व इसे देश की एकता के लिए खतरा मानते हुए संसद के अंदर और बाहर इसके खिलाफ संघर्ष करते रहे। श्यामा प्रसाद महज मुखर्जी 33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर बन गए थे। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वह सबसे कम आयु के व्यक्ति भी थे। इस अवसर पर जानिए डॉ. मुखर्जी के जीवन के बारे में कुछ अनसुनी बातें…

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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का प्रारंभिक जीवन

श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को बंगाल प्रांत के कलकत्ता में एक समृद्ध परिवार में हुआ था। उनके पिता आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता स्थित उच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के उप-कुलपति भी थे। उनकी माता का नाम जोगमाया देवी था। श्यामा प्रसाद ने वर्ष 1914 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की और प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उन्होंने वर्ष 1916 में आर्ट्स में इंटर परीक्षा पास की। इसके बाद वर्ष 1921 में मुखर्जी ने अंग्रेजी विषय में प्रथम श्रेणी के साथ स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने बंगाली विषय में एम.ए. में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का विवाह 16 अप्रैल, 1922 को सुधा देवी के साथ हुआ था। जिनसे उन्हें दो बेटे और दो बेटियां हुईं। हालांकि, उनकी पत्नी का देहांत करीब 11 साल बाद ही वर्ष 1933 में हो गया था, लेकिन इसके बाद उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और अपना आगे का पूरा जीवन राष्ट्र के हित में समर्पित कर दिया।

कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड गए

वर्ष 1924 में पिता की मृत्यु के बाद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कलकत्ता हाईकोर्ट में वकालत के लिए पंजीकरण कराया और दो वर्ष वकालत करने के बाद वर्ष 1926 में वह कानून की आगे की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गए। मुखर्जी वर्ष 1927 में बैरिस्टर बन कर वापस भारत आ गए। इसी वर्ष उन्हें अंग्रेजी बार में आमंत्रित किया गया। वर्ष 1934 में 33 वर्ष की आयु में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र में वाईस चांसलर बने और उन्होंने इस पद पर वर्ष 1938 तक कार्य किया।

डॉ. श्यामा प्रसाद ने वर्ष 1937 में गुरु रविंद्रनाथ टैगोर को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में भाषण के लिए आमंत्रित किया था। कलकत्ता विश्वविद्यालय के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी ने दीक्षांत समारोह का भाषण बांग्ला में दिया हो।

बंगाल के वित्त मंत्री रहे और एक साल बाद दिया इस्तीफा

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत वर्ष 1929 में हुई, जब उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में बंगाल विधान परिषद् में प्रवेश किया। परंतु जब कांग्रेस ने विधान परिषद के बहिष्कार का निर्णय लिया, तब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसके पश्चात उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और वह चुने गए। वर्ष 1941-42 में वह बंगाल राज्य के वित्त मंत्री रहे। वर्ष 1937 से 1941 के बीच जब कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग की साझा सरकार थी, तब वह विपक्ष के नेता थे। जब फजल-उल-हक़ के नेतृत्व में एक प्रगतिशील सरकार बनी, तब उन्होंने वित्त मंत्री के तौर पर कार्य किया पर एक वर्ष बाद ही पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।

मंत्री पद से इस्तीफा देकर हिंदू महासभा में शामिल हुए

मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद धीरे-धीरे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदुओं के हित की बात करने लगे और हिन्दू महासभा में शामिल हो गए। वर्ष 1944 में वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी रहे। डॉ. मुखर्जी धर्म के आधार पर भारत के विभाजन के कट्टर विरोधी थे। उनके अनुसार विभाजन संबंधी परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से उत्पन्न हुई थी। वह यह भी मानते थे कि सत्य यह है कि हम सब एक हैं और हममें कोई अंतर नहीं है। हम सब एक ही भाषा और संस्कृति के हैं और एक ही हमारी विरासत है।

इस मान्यता के साथ आरम्भ में उन्होंने देश के विभाजन का विरोध किया था, पर वर्ष 1946-47 के दंगों के बाद उनके इस सोच में परिवर्तन आया। उन्होंने महसूस किया कि मुस्लिम लीग के सरकार में मुस्लिम बाहुल्य राज्य में हिन्दुओं का रहना असुरक्षित होगा। इसी कारण वर्ष 1946 में उन्होंने बंगाल विभाजन का समर्थन किया।

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पंडित नेहरु के मंत्रिमंडल में मंत्री रहे, फिर दे दिया त्याग-पत्र

भारत की स्वतंत्रता के बाद जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में सरकार बनी तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुख़र्जी भारत के पहले मंत्रिमण्डल में शामिल हुए और उद्योग व आपूर्ति मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली। भारत के संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के तौर पर उन्होंने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया, परंतु उनके राष्ट्रवादी सोच के चलते कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ मतभेद बराबर बने रहे।

अंततः सन 1950 में नेहरू-लियाकत समझौते के विरोध में उन्होंने 6 अप्रैल 1950 को मंत्रिमंडल से त्याग-पत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने एक नए राजनीतिक दल की स्थापना अक्टूबर, 1951 में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना की। वर्ष 1952 के चुनाव में भारतीय जन संघ ने कुल तीन सीटें जीती, जिसमे एक उनकी खुद की सीट शामिल थी।

जम्मू-कश्मीर में धारा 370 का शुरू से ही किया विरोध

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर को अन्य भारतीय राज्यों से एक अलग दर्जा दिए जाने का बड़े जोर से विरोध किया था। वह चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर को भी भारत के अन्य राज्यों की तरह ही माना जाए। डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर राज्य के अलग झंडे और अलग निशान व अलग संविधान के विरोधी थे। उन्होंने ही सबसे पहले देश की संसद में धारा-370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की थी।

अगस्त, 1952 में डॉ. श्यामा प्रसाद ने बिना परमिट लिए ही जम्मू-कश्मीर में प्रवेश का ऐलान किया। वह इसे पूरा करने के लिए वर्ष 1953 में बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। उनको वहां पहुंचते ही गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 23 जून, 1953 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई, जोकि आज तक भी सबके लिए एक राज़ बनी हुई है।

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