हलचल

सवर्ण आरक्षण: क्यों इसके लोजिक में दम नहीं है?

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया है कि सामान्य केटेगरी में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग उच्च शिक्षा और सरकारी रोजगार में 10% आरक्षण के हकदार हैं। हालांकि इस कदम को लेकर कई राजनीतिक आपत्तियां भी सामने आ रही हैं। किसी भी राजनीतिक दल ने अभी तक सार्वजनिक तौर पर इसका विरोध नहीं किया है मगर इसकी मंशा और वक्त पर जरूर सवाल उठाए हैं।

सत्तारूढ़ भाजपा ने हाल ही में कई प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव हारे हैं। दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) तक पहुंचने में बीजेपी कहीं ना कहीं नाकाम रही। इसलिए अब वह सवर्णों को साधने की कोशिश में है। बाद वाले बीजेपी के लिए पारंपरिक आधार रहे हैं। लेकिन दलित निर्वाचन क्षेत्र को ‘पुरस्कृत’ करने के भाजपा के नए प्रयासों के बाद, ऊपरी वर्गों के कम से कम कुछ वर्गों की संभावना के बारे में भाजपा कार्यालयों में खतरे की घंटी बजने लगी।

लोकसभा चुनावों के कुछ ही महीने दूर हैं। विपक्ष ने फैसले के समय को चुनौती दी है। सामान्य वर्ग के लिए शिक्षा और रोजगार के आरक्षण को पार्टी की नीति मानी जा सकती है जिसमें वह सवर्णों को साध सके।

इस कदम को कानूनी रूप से भी विवादित बताया गया है। लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट का फैसला है कि संविधान की मूल संरचना 50% से अधिक आरक्षण की अनुमति नहीं देती है। कथित तौर पर भारत सरकार इस संवैधानिक बाधा को दरकिनार करने के लिए संवैधानिक संशोधन की योजना बना रही है।

‘आर्थिक कमजोरी’ के लिए पात्रता मानदंड को इस तरह से तैयार किया गया है कि यह लगभग सभी भारतीयों को कवर करता है। वार्षिक पारिवारिक आय 8 लाख रुपये से अधिक नहीं होनी चाहिए। कृषि भूस्वामियों का अधिकतम क्षेत्रफल 5 एकड़ से अधिक नहीं होना चाहिए। घर का क्षेत्र 1,000 वर्ग फुट से बड़ा नहीं होना चाहिए। इनमें से कुछ मानदंड लगभग 95% भारतीय परिवारों को अपने अंदर ले सकते हैं।

इसमें विडंबना गजब की है। देश अभी भी गरीब है, आर्थिक ताकत कुछ के हाथों में केंद्रित है। इसके अलावा, मानदंड जो लगभग 90% आबादी पर लागू होता है 10% आरक्षण का आधार है और यह वर्तमान में बेतुका है। इसके अलावा हाल के दिनों में रोजगार पैदा भी कम ही हुए हैं। ठोस शब्दों में, इसका मतलब है कि प्रस्ताव पर नौकरियों की संख्या दयनीय रूप से छोटी होगी और उनके लिए प्रतिस्पर्धा पहले से भी अधिक अविश्वसनीय रूप से बढ़ेगी।

पूना समझौते के बाद से मोहनदास गांधी और बी. आर. अंबेडकर के बीच एक राजनीतिक अनुबंध पर स्वतंत्र भारत में आरक्षण का प्रसार किया गया। संबंधित सरकार द्वारा अपनी जनसंख्या के एक वर्ग को गरीबी से बाहर निकालना केवल एक नीतिगत साधन नहीं है।

अंबेडकर ने इस शर्त पर एक अलग मतदाता को अधिकार दिया कि दलितों और आदिवासियों को पूर्ण नागरिकता प्रदान की जाएगी। आरक्षण केवल उन नीतिगत साधनों में से एक है जिनके साथ पूर्ण नागरिकता लाना है। इस बात पर बहस हो सकती है कि आरक्षण पर्याप्त है या वह वादे पर कितना खरा उतरा है। लेकिन इसका नैतिक और बौद्धिक आधार महज एक दूसरे की राजनीति से अलग है।

आरक्षण की नीति के साथ बहुत सारी समस्याएं हैं क्योंकि यह आज भी मौजूद है। लेकिन यह ‘सामान्य ज्ञान’ की धारणा है कि आरक्षण सामाजिक समानता के लिए है गरीबी हटाना आरक्षण का काम नहीं है। असली सवाल यह है कि आरक्षण इतनी गर्मी क्यों और कैसे उत्पन्न करता है जब यह वास्तव में इतना कम लाभ पहुँचाता है।

अब इस नई व्यवस्था में पदों की संख्या तो क्या ही बढ़ेगी केंडिडेट जरूर बढ़ जाएंगे।  जितना अधिक हम ‘ऊंची जाति के आरक्षण’ जैसी अस्थिर विविधता के बारे में बहस करते हैं, संरचनात्मक बाधाओं पर उतनी ही गंभीर बहस टाल दी जाती है, या खारिज कर दी जाती है। आरक्षण का आधार सामाजिक था और है ऐसे में आर्थिक आधार पर इसका प्रसार सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है।

Neha Chouhan

12 साल का अनुभव, सीखना अब भी जारी, सीधी सोच कोई ​दिखावा नहीं, कथनी नहीं करनी में विश्वास, प्रयोग करने का ज़ज्बा, गलत को गलत कहने की हिम्मत...

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