ये हुआ था

बर्थ एनिवर्सरी: सुरिंदर कौर ने अपनी आवाज़ के जादू से पंजाब की फ़िज़ा में घोल दी थी मिश्री

सुप्रसिद्ध पंजाबी गीतकार व लोक गायिका सुरिंदर कौर की आज 94वीं बर्थ एनिवर्सरी है। उनका जन्म 25 नवंबर, 1929 को विभाजन से पहले के भारत के पंजाब के लाहौर शहर में हुआ था। सुरिंदर ने दुनिया के कई मुल्कों में परफॉर्म किया। वे जहां भी गईं, लोगों ने उन्हें सिर-आखों पर बिठा लिया। पंजाबी संगीत की दुनिया में उनकी गायकी का कद इतना ऊंचा है कि हर सम्मान उसके आगे ​छोटा लगता है।

कभी उन्हें ‘पंजाब दी कोयल‘ तो कभी उन्हें ‘पंजाब दी आवाज़‘ कहा गया। सुरिंदर कौर पंजाबी संगीत की दुनिया के लिए लता मंगेशकर से कम नहीं थीं। गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी ने उन्हें ‘लिविंग ​लीजेंड ऑफ़ पंजाब’ का खिताब दिया एवं डॉक्टरेट की उपाधि से नवाज़ा। पंजाबी संगीत नाटक अकादमी ने सुरिंदर कौर को ‘सदी की कलाकार’ के तौर पर सम्मानित किया। पूरे जीवन में उन्हें ‘पद्मश्री’ समेत कई प्रति​ष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया। लीजेंड पंजाबी लोक गायिका सुरिंदर कौर की बर्थ एनिवर्सरी के अवसर पर जानिए उनकी जिंदगी के बारे में कुछ रोचक किस्से…

जिस परिवार में जन्मी उसमें मना था गाना-बजाना

पंजाबी समुदाय के बीच पूरी दुनिया में ख़ासी लोकप्रिय सुरिंदर कौर का जन्म एक सिक्ख परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता की आठ संतानों में से एक थीं। उनके घर में गाने-बजाने की इजाज़त नहीं थी। लेकिन उनकी रुचि को देखते हुए उनके बड़े भाई ने उनका समर्थन किया और बड़े मुश्किल से अपने घरवालों को सुरिंदर और उनकी बड़ी बहन प्रकाश कौर की संगीत शिक्षा के लिए मनाया। 12 साल उम्र में सुरिंदर कौर और उनकी बड़ी बहन प्रकाश कौर ने मास्टर इनायत हुसैन और मास्टर पंडित मणि प्रसाद से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा लेने शुरु कर दिया था। अंतत: दोनों बहनों ने कड़ी मेहनत करके भारतीय क्लासिकल म्यूजिक की कठिनाइयों को पार कर लिया और आगे चलकर पंजाबी संगीत की दुनिया की स्वर कोकिला बन गईं।

पहली बार लाहौर रेडियो के लिए हुई सिलेक्ट

सुरिंदर कौर ने वर्ष 1943 में लाहौर रेडियो के लिए ऑडिशन दिया और उनकी आवाज़ बच्चों के एक म्यूजिक प्रोग्राम के लिए सिलेक्ट हो गई। यहां से उनकी संगीत की दुनिया का सफ़र शुरु हुआ। साल 1946 में एचएमवी लेबल ने एक एल्बम निकाला, जिसमें दोनों बहनों सुरिंदर और प्रकाश कौर ने पहली बार साथ गायन (ड्यूट) किया। इसका एक गाना ‘मॉंवां ते धीयां रल बैठियां’ काफ़ी पॉपुलर हुआ। अपने इस पहले गाने की बदौलत दोनों बहनें भारतीय उपमहाद्वीप में रातों-रात स्टार बन गई थीं।

लेकिन इसके बाद वे ज्यादा समय तक लाहौर में नहीं रहीं। वर्ष 1947 में हुए भारत के विभाजन के वक़्त उनके परिवार को लाहौर छोड़कर पड़ा। वहां से उनका परिवार दिल्ली आकर रहने लगा था। बाद में वे बॉम्बे में बस गए। यहां सुरिंदर कौर ने फिल्म इंडस्ट्री में बतौर प्लेबैक सिंगर काम करना शुरु किया। साल 1949 में आई फिल्म ‘शहीद’ के लिए रिकॉर्ड गाना ‘बदनाम ना हो जाये मोहब्बत का फ़साना’ व्यक्तिगत रूप से उनका हिंदी फिल्मों में सबसे ज्यादा याद किए जाने वाला गाना है।

इसके बाद उन्होंने दिल्ली लौटते हुए सरदार जोगिंदर सिंह सोढ़ी से शादी कर ली, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में साहित्य के प्रोफेसर हुआ करते थे। उन्होंने सुरिंदर कौर के कॅरियर को आगे बढ़ाने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई। एक बार सुरिंदर ने अपने पति का जिक्र करते हुए बताया था कि उन्होंने ही मुझे स्टार बनाया था। वे ही मेरे गानों की लिरिक्स चुना करते थे और हम साथ में कम्पोजीशन तैयार किया करते थे। पति जोगिंदर सिंह सोढ़ी और सुरिंदर कौर ने साथ में कई सुपरहिट गाने लिखे। जिनमें ‘चन कित्था गुज़ारी एई रात वे’, ‘लठ्ठे दी चादर’, ‘शौंकण मेले दी’ ‘गोरी दियां झांझरां’ और ‘सड़के-सड़के जांदिये मुटियारे नी’ जैसे सुपरहिट गाने शामिल हैं।

छह दशक के कॅरियर में दिए कई सुपरहिट गाने

सुरिंदर कौर ने अपने करीब आधी शताब्दी से ज्यादा के कॅरियर में 2000 से अधिक गाने रिकॉर्ड किए। उन्होंने अधिकांश गाने अपने बड़ी बहन प्रकाश कौर के साथ रिकॉर्ड करवाए। प्रकाश कौर भी पंजाबी भाषा की जानी-मानी गायिका थी। सुरिंदर ने अपने कॅरियर में असा सिंह मस्ताना, हरचरण ग्रेवाल, रंगीला जट्ट और दीदार संधू के साथ कई सुपरहिट ड्यूट गाने किए। उनकी असा सिंह मस्ताना से मुलाक़ात 1954 में रूस में हुई थी। उस वक़्त वे भारत सरकार की ओर से प्रोग्राम के लिए रूस भेजी गई थीं। मस्ताना के साथ उन्होंने ज्यादा गाने रिकॉर्ड नहीं किए लेकिन दो गानों की स्टेज परफॉरमेंस ने उन्हें काफ़ी पॉपुलर बना दिया था।

सुरिंदर कौर ने पंजाबी फ़ोक गानों के अलावा साल 1948 से 1952 तक कुछ बॉलीवुड हिंदी फिल्मों के लिए भी प्लेबैक सिंगिंग की थी। साल 1984 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पंजाबी फ़ोक संगीत में उनके उत्कृष्ठ योगदान को देखते हुए वर्ष 2006 में भारत सरकार ने सुरिंदर कौर को देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘पद्मश्री‘ से सम्मानित किया। ये बात अलग है कि भारत सरकार ने उन्हें यह सम्मान देने में काफ़ी देर कर दी। दुर्भाग्य की बात ये है कि उनको पद्मश्री दिए जाने की सिफ़ारिश भी जिस पंजाब की भाषा के लिए उन्होंने सारी उम्र गायन किया.. उसने नहीं बल्कि हरियाणा सरकार की ओर से की गई थी।

जब जवाहर लाल नेहरू ने की परफार्मेंस की गुज़ारिश

सुरिंदर कौर के बारे में यह किस्सा वर्ष 1953 का है। जब सुरिंदर को पंडित जवाहर लाल नेहरू का फोन आया था। नेहरू ने उनसे गुज़ारिश की थी कि आपको चीन की सरहद एक लाइव परफार्मेंस देनी है। एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उन्हें वहां जाना था। नेहरू जी चाहते थे कि अपने गीत के जरिये सुरिंदर कौर हिंदी-चीनी भाई-भाई के संदेश को मजबूती दें। वे पहली ऐसी भारतीय लोक गायिका थीं, जिन्होंने चीन की सरहद पर ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा मंच पर लगाया था।

साल 1964 में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लेह-लद्दाख में डटे जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए सुरिंदर कौर से देश भक्ति गीत गाने की फ़रमाइश की तो वे नर्वस हो गईं। उन्होंने लोक गीत तो खूब गाए थे लेकिन कभी देशभक्ति गीत नहीं गाया था। यही उनकी परेशानी का कारण था। ऐसे समय में सुरिंदर के पति ने उनकी परेशानी को दूर किया और कहा कि जैसा प्रधानमंत्री जी चाहते हैं, तुम्हें करना चाहिए। सुरिंदर कौर के पति ने रातों-रात गीत लिखा और उन्होंने वही गीत जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए उसे गाया।

उस गीत के बोल यूं थे, ‘साथी हो.. साथी हो.. चला चल, होर अगाहां.. न पासां मोड़ पीछावां।’ इस गाने का हिंदी अर्थ था कि जो कुछ हुआ है, उसे भूलकर आगे बढ़ने का समय है। यह मुसीबतें आपके हौसलों को डिगा नहीं सकतीं। पंडित नेहरू समेत फौज के जवानों को यह गीत खूब भाया। इस बात का जिक्र सुरिंदर कौर अपने बच्चों से अक्सर किया करती थीं।

आखिरी इच्छी थी कि पंजाब की धरती पर मौत आए

सुरिंदर कौर की आखिरी इच्छी यह थी कि उन्हें पंजाब की धरती पर मौत आए। इसलिए वे अंतिम दिनों में साल 2004 में बड़ी बेटी और पंजाबी की नामी गायिका डॉली गुलेरिया के साथ रहने लगीं। यहां वे चंडीगढ़ के नजदीक ज़िरकपुर में अपना घर बनवाने के लिए रह रही थीं। इसी दौरान अचानक, 22 दिसंबर 2005 में उन्हें हार्ट अटैक का सामना करना पड़ा और उन्हें पंचकुला के जनरल अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

कुछ समय बाद वे वापस लौटी और इसके बाद जनवरी 2006 में उन्होंने बीमार होने के बावजूद राष्ट्रपति भवन पहुंचकर ‘पद्मश्री’ अवॉर्ड प्राप्त किया। ज्यादा बीमार होने पर उनको ईलाज के लिए यूएस ले जाया गया। लेकिन 14 जून, 2006 को उनका यूएस के न्यू जर्सी हॉस्पिटल में 77 साल की उम्र में निधन हो गया। उनकी तीन बेटियां डॉली गुलेरिया, नंदिनी सिंह और प्रमोदिनी जग्गी है। उनकी दोनों छोटी बेटी न्यू जर्सी में सेटल है।

‘संगीत नहीं होता तो मेरी ज़िंदगी सामान्य महिला जैसी होती’

सुरिंदर कौर बेदाग, पाक-साफ़ आवाज़ की मालकिन थी.. चाहे फ़िर बात सूफी गायन या लोक गीत या फिल्मी गीत.. जिस अंदाज में उन्होंने गाया हर कोई उनका मुरीद होकर रह गया। उन्होंने परिवार, समाज, पंजाब की लोक गाथाओं को अपनी आवाज़ के जादू के साथ पंजाब की फ़िजां में मिश्री की तरह घोला दिया, इसलिए उनकी गायकी का दर्ज़ा ‘तख्त़ हजारा’ जैसा है। सुरिंदर कौर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि संगीत नहीं होता तो मेरी ज़िंदगी एक सामान्य महिला जैसी ही होतीं। उनके गाने ‘सुहे वे चीरेया वालेया’, ‘बाजरे दा सिट्टा’, ‘काला डोरियां’, ‘अखियां च तू वसदा’, ‘डाची वालेया’, ‘जूत्ती कसूरी’ और ‘ईक मेरी अख काशनी’ आज भी युवाओं में काफ़ी पॉपुलर हैं।

Read: मशहूर गायिका गीता दत्त को पति गुरु दत्त की मौत के बाद लग गई थी शराब की लत

Raj Kumar

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