बारह साल की उम्र में संस्कृत की पढ़ाई करने के लिए काशी पहुंच गए थे चंद्रशेखर आज़ाद

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक और मशहूर स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद की 23 जुलाई को 116वीं जयंती है। भारत माता के वीर सपूत आज़ाद एक निर्भीक और दृढ़ निश्चयी क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए मात्र 25 वर्ष की उम्र में अपने जीवन की आहुति दे दी थी। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्य प्रदेश प्रांत के अलीराजपुर जिले के भाबरा गांव में हुआ था। उनकी वीरता की गाथा युवा और देशवासियों के लिए हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहेंगी। इस मौके पर जानिए वीर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद की महानता के बारे में कुछ रोचक किस्से..

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पिता यूपी छोड़कर नौकरी के लिए चले गए थे एमपी

चंद्रशेखर आज़ाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी अकाल पड़ने के समय उत्तर प्रदेश के अपने पैतृक गांव बदरका को छोड़कर मध्य प्रदेश चले गए थे। वह पहले कुछ महीनों तक मध्य प्रदेश की अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे, फिर भाबरा गांव जाकर बस गए। वर्ष 1906 में चन्द्रशेखर आज़ाद का जन्म भी यहीं हुआ।

आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गांव में बीता था। बचपन में आज़ाद ने भील समुदाय के बच्चों के साथ धनुष बाण चलाना अच्छे से सीख लिया था। इस प्रकार वह निशानेबाजी में बचपन से ही पारंगत हो गए थे। आज़ाद की मां का नाम जगरानी देवी था और वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे।

बॉम्बे जाकर जहाज की पेटिंग का काम किया

चंद्रशेखर आज़ाद किशोर अवस्था में बड़े-बड़े सपने देखने लगे थे। वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए घर छोड़कर बॉम्बे (मुंबई) निकल पड़े। जहां उन्होंने कुछ समय बंदरगाह में जहाज की पेटिंग का काम किया था। कुछ महीने काम करने के बाद बॉम्बे में आज़ाद को एक सवाल परेशान करने लगा था कि अगर पेट पालना ही है तो क्या भाबरा बुरा था? आज़ाद की मां चाहती थीं कि वो संस्कृत पढें और प्रकाण्ड विद्वान बनें।

इसलिए आज़ाद बॉम्बे छोड़ कर संस्कृत की पढ़ाई करने के लिए 12 साल की उम्र में काशी (बनारस) पहुंच गए। जहां पंड़ित शिव विनायक मिश्र उनके लोकल गार्जियन हुआ करते थे। शिव खुद भी उन्नाव से थे और आज़ाद के दूर के रिश्तेदार भी। शिव नगर कांग्रेस कमेटी के सेक्रेटरी और काशी के बड़े कांग्रेस नेताओं में से एक थे।

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जितनी बेंतें पड़ी उतनी बार मुंह से ‘वंदे मातरम’ जैसे नारे निकले

यह वह समय था जब देश में जलियांवाला बाग नरसंहार के समय गांधीजी का असहयोग आंदोलन अपने जोरों पर था। गांधीजी के आंदोलन के समर्थन में छात्रों के प्रदर्शन में चंद्रशेखर आज़ाद ने हिस्सा लिया और इसके बदले उनकी गिरफ्तारी हुई व उन्हें 14 बेंतों की सज़ा भी मिली। आजाद को जितनी बार बेंतें पड़ीं, उतनी बार उनके मुंह से ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ जैसे नारे निकले। उसी दिन आज़ाद ने इस बात का प्रण ले लिया था कि अब कोई पुलिस वाला उन्हें हाथ नहीं लगा पाएगा, वो ‘आज़ाद’ ही रहेंगे।

बेंतें मारने की सज़ा से पहले जब न्यायाधीश ने चंद्रशेखर से उनके पिता नाम पूछा, तो जवाब में उन्होंने अपना नाम आजाद और पिता का नाम स्वतंत्रता और पता जेल बताया था, जिसके बाद से ही इस महान क्रांतिकारी योद्धा का नाम चंद्रशेखर सीताराम तिवारी से चंद्रशेखर आज़ाद हो गया। उस वक़्त आज़ाद की उम्र मात्र 15 साल थी। तब से उन्होंने अपने घर-परिवार के बारे में सोचना बंद कर दिया था और खुद को पूरी तरह से देश को समर्पित कर दिया। काशी की सेंट्रल जेल से निकलने के बाद आज़ाद का स्थानीय कांग्रेस सदस्यों ने काशी के ज्ञानवापी में अभिनंदन समारोह में सम्मान किया।

कांग्रेस से मोहभंग हुआ तो प्रजातान्त्रिक संघ में शामिल हुए

असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चौरी-चौरा की घटना के पश्चात् गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोहभंग हो गया। जिसके बाद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिंदुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गए थे।

हिंदुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ ने धन की व्यवस्था करने के लिए जब गांव के अमीर घरों में डकैतियां डालने का निश्चय किया तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गांव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद की पिस्तौल छीन ली तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद ने साथी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश खजाना लूटने और हथियार खरीदने के लिए ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन डकैती को अंजाम दिया था। इस घटना ने अंग्रेजों की हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।

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Image: चंद्रशेखर आज़ाद की पिस्तौल.

सांडर्स को मार लिया था लाजपतराय की मृत्यु का बदला

17 दिसम्बर, 1928 को चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह और राजगुरु ने शाम के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर को घेर लिया और ज्यों ही अंग्रेज अधिकारी जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर बाहर की तरफ़ निकले, तो राजगुरु ने पहली गोली दाग दी।

राजगुरु की गोली सांडर्स के माथे पर जाकर लगी और वह मोटरसाइकिल से नीचे गिर पड़ा। फिर भगत सिंह ने आगे बढ़कर उस पर 4-6 गोलियां और दाग दी। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने उनका पीछा किया, तो चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया।​ ब्रिटिश अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या के बाद लाहौर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए, जिन पर लिखा था- ‘लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया है।’

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मुख़बिरी के कारण हुई थी चंद्रशेखर की शहादत

चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के बारे में कहा जाता है कि एक रोज वह इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मंत्रणा कर ही रहे थे, तभी मुख़बिरी के आधार पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। यह दिन था 27 फरवरी, 1931 का। इस दिन जब उनका सामना अंग्रेजों से हुआ तो उन्होंने पहले पांच गोलियां अंग्रेजों पर चलाईं और फ़िर अपनी पिस्तौल से ही छठी गोली खुद को मार ली। क्योंकि अमर शहीद चंद्र शेखर आज़ाद नहीं चाहते थे कि वो अंग्रेजों के हाथ लगें। इस तरह उन्होंने ताउम्र अंग्रेजों के हाथों गिरफ़्तार नहीं होने का अपना वादा भी पूरा कर दिखाया और यह दुखद घटना इतिहास में दर्ज़ हो गई।

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